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अणुओगदाराई राजा ने देखा -वह स्थान तब तक गीला था। उसका चिन्तन वहीं अटक गया। वहां की भूमि में जल की सम्भावना से उसके मन में तालाब बनवाने की बात उठी । मन्त्री राजा की मनःस्थिति का अध्ययन कर रहा था। घर पहुंचकर उसने वहां तालाब बनाने की योजना बनाई और राजा के न कहने पर भी तालाब खुदवा दिया। उसके चारों ओर सब ऋतुओं के अनुकूल फलों फूलों वाले वृक्ष लगा दिए।
एक दिन उधर से गुजरते समय राजा ने वह तालाब देखा और मन्त्री से पूछा-यह मानसरोवर की भांति रमणीय तालाब किसने बनवाया ? मन्त्री-महाराज ! आप ही ने तो बनवाया है। राजा ने प्रश्नायित आंखों से देखकर कहा-मैंने कब, किसे कहा ? मन्त्री ने उस दिन की सारी बात बताई। राजा अपने मन्त्री की दूसरे के चित्त को पहचानने की कला पर प्रसन्न हुआ। उसने मंत्री का वेतन बढ़ा दिया ।
सूत्र ९९ प्रशस्त भावोपक्रम
शास्त्रों का अध्ययन करने के लिए गुरु आदि पूज्यजनों के भावों को समझना और तदनुरूप चेष्टा करना- इसका नाम है प्रशस्त भावोपक्रम । प्रस्तुत आगम में अनुयोग के चार द्वारों की चर्चा है । अनुयोग का अर्थ है- व्याख्या । व्याख्या के सन्दर्भ में जिन तत्त्वों का उपयोग हो उन्हीं का कथन अपेक्षित है। शास्त्राध्ययन के प्रसंग में गुरु का भावबोध तो अप्रासंगिक सा लगता है। इस आशंका का निरसन करते हुए वृत्तिकार हेमचन्द्र ने गुरु के भावबोध को ही व्याख्या का मुख्य अंग स्वीकार किया है। कहा भी है
"शास्त्र का प्रारम्भ गुरु के अधीन होता है। इसलिए अपने हित की एषणा करने वाले व्यक्ति को गुरु की आराधना में तत्पर रहना चाहिए।"
गुरु के मन को समझना और उसके अनुरूप प्रवृत्ति करना उचित है। इसलिए गुणार्थी शिष्यों को ऐसा प्रयत्न करना चाहिए जिससे गुरु प्रसन्न रहे। शिष्य का कर्तव्य है कि वह गुरु के आकार और इंगित की आराधना करे। किसी समय गुरु कौए को सफेद भी बताए तो शिष्य उनकी बात का प्रतिवाद न करे । एकान्त में वह उसका कारण पूछ ले ।
वृत्तिकार ने प्रशस्त भावोपक्रम का पूरा उदाहरण तो नहीं दिया पर संकेत अवश्य दिया है। पूरा कथानक विशेषावश्यक भाष्य की मलधारीया वृत्ति में मिलता है।
राजा आचार्य के पास आया । उसने पूछा-भन्ते ! आपके शिष्यों में सबसे अधिक विनीत शिष्य कौन है ? आचार्य ने कुछ शिष्यों को बुलाया और कहा- जाओ, देखकर आओ, गंगा किस दिशा में बह रही है।
कई शिष्यों ने तत्काल उत्तर दिया-भंते ! गंगा पूर्व की ओर बह रही है। उसमें से एक शिष्य आश्रम से बाहर गया, गंगा के तट पर पहुंचा, गंगा की धारा को देखा और लौटकर निवेदन किया-गंगा पूर्व की ओर बह रही है। आचार्य ने राजा की ओर अभिमुख होकर कहा-राजन् ! मेरा यह शिष्य सबसे अधिक विनीत है।
सब शिष्यों ने गुरु के प्रश्न का उत्तर दिया पर गुरु के इंगित की आराधना करने वाला वह एक ही शिष्य था। यह प्रशस्त भावोपक्रम का उदाहरण है।
१. अमवृ. प. ४५। २. विभा. ९३४ की वृत्ति ।
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