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प्र०५ , सू० १५५-१७१, टि०१-६
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३. देशोन लोक में (देसूणे वा लोए)
आनुपूर्वी का एक द्रव्य लोक के संख्यातवें भाग में अवगाह करता है। आनुपूर्वी का एक द्रव्य लोक के असंख्यातवें भाग में अवगाह करता है। आनुपूर्वी का एक द्रव्य लोक के संख्येय भागों में अवगाह करता है। आनुपूर्वी का एक द्रव्य लोक के असंख्येय भागों में अवगाह करता है। इसका हेतु यह है कि स्कन्ध एक प्रकार के नहीं होते । कोई स्कन्ध छोटा होता है कोई बड़ा होता है। यह परिणति की विचित्रता के कारण होता है।
नैगम और व्यवहारनय सम्मत क्षेत्रानुपूर्वी का एक आनुपूर्वी द्रव्य भी देशोन (किञ्चित् न्यून) लोक में होता है। यह कथन सापेक्ष है। 'अचित्त महास्कन्ध' सर्वलोकव्यापी होता है। इस दृष्टि से अपूर्ण लोक-व्याप्ति की बात संगत प्रतीत नहीं होती किन्तु लोक में आनुपूर्वी द्रव्यों की भांति अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्य भी सदा होते हैं। यदि आनुपूर्वी द्रव्य समूचे लोक में व्याप्त हो जाएं तो अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्यों के लिए स्थान ही नहीं रहेगा। इसलिए अनानुपूर्वी द्रव्यों के लिए जघन्यतः एक प्रदेश
और अवक्तव्य द्रव्यों के लिए जघन्यतः दो प्रदेशों की विवक्षा की गई है । यद्यपि इन प्रदेशों में भी आनुपूर्वी द्रव्य होते हैं पर उनकी गौणता और अनानुपूर्वी एवं अवक्तव्य द्रव्यों की प्रधानता की अपेक्षा से यह प्रतिपादन किया गया है।'
क्षेत्रानुपूर्वी का आनुपूर्वी द्रव्य कम से कम आकाश के तीन प्रदेशों में अवगाहन करता है। द्रव्यानुपूर्वी का आनुपूर्वी द्रव्य आकाश के एक प्रदेश में भी अवगाह कर सकता है। लोक के निष्कुट (प्रान्तभाग) में अनानुपूर्वी द्रव्य रह सकते हैं किन्तु आनुपूर्वी द्रव्य नहीं रह सकते । इस अपेक्षा से भी उनका अवगाह देशोन लोक कहा जा सकता है।
सूत्र १७० ४. (सूत्र १७०)
काल चिन्ता के दो विकल्प बनते हैं१. आकाश प्रदेशों की काल चिन्ता । २. आनुपूर्वी द्रव्यों के अवगाह-काल की चिन्ता ।
आकाश के प्रदेश अनादि अपर्यवसित हैं। इसलिए उनकी कालावधि विमर्शनीय नहीं हो सकती किन्तु आनुपूर्वी द्रव्यों के अवगाह की कालावधि विमर्शनीय है । यह चूर्णिकार का अभिप्राय है।
हरिभद्रसूरि ने चूर्णिकार के मत को उद्धृत किया है। उन्होंने आकाश प्रदेशों की कालावधि का समर्थन किया है । उनके अनुसार आधेय-द्रव्य के परिणमन के आधार पर आधार-द्रव्यों में भी परिणमन होता है। इसलिए इस कालावधि को आकाश प्रदेशों की कालावधि माना जा सकता है और यह युक्तिसंगत है क्योंकि यह क्षेत्रानुपूर्वी का प्रकरण है द्रव्यानुपूर्वी का नहीं।
सूत्र १७१ ५. जघन्यतः एक समय (जहण्णणं एगं समयं)
एक समय की स्थिति के निर्देश का तात्पर्य है-किसी द्विप्रदेशावगाढ स्कन्ध में एक परमाणु या स्कन्ध मिल गया और वह त्रिप्रदेशावगाढ हो गया । एक समय के अंतराल से पुनः वह द्विप्रदेशावगाढ हो गया। इस प्रकार जघन्य स्थिति एक समय की हो जाती है। यहां भी आधेय-भेद के अनुसार आधार-भेद की भावना करनी चाहिए। ६. उत्कृष्टतः असंख्येयकाल (उक्कोसेणं असंखेज्जं काल)
अन्तरकाल क्षेत्रस्वभाव के नियम का उदाहरण है। पुद्गलों के अवगाह क्षेत्र का स्थितिकाल असंख्येय होता है। क्षेत्रानु१. (क) अचू. पृ. ३२ ।
कालश्चिन्त्यते ततः किल नभःप्रदेशानामनाद्यपर्यवसित(ख) अहाव. पृ. ४५।
त्वात् स एव वक्तव्यः, सूत्राभिप्रायस्त्वानुपादिद्रव्याणा(ग) अमवृ. प. ७३,७४ ।
मेवावगाहस्थितिकालश्चिन्त्यते इत्येके, म चेद् क्षेत्रखडा२. अचू. पृ. ३४ : कालो खप्पदेसावगाहठितिकालो चितिज्जद्द, नामपि विशिष्टपरिणामपरिणताधेयद्रव्याधारमावोऽपि सोवि दव्वाणुपुव्विसरिसो चेव ।
चिन्त्यमानो विरुध्यत इति, युक्तिपतितश्चायमेव, क्षेत्रानु३. अहाव, पृ. ४९ : कालचितायामपि यद्याकाशप्रदेशानामेव
पूाधिकारादिति ।
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