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अणुओगदाराई पूर्वी में क्षेत्र की प्रधानता है । असंख्येय काल की अवधि में वे पुद्गल स्कन्ध जो पहले निर्दिष्ट आकाशप्रदेश का अवगाहन किए हुए थे पुनः उसी आकाशप्रदेश का अवगाह कर लेते हैं । इस अपेक्षा से उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्य बताया गया है।
आचार्य हेमचन्द्र ने एक मतान्तर का उल्लेख किया है। उनके अनुसार विवक्षित क्षेत्र से एक आनुपूर्वी द्रव्य अन्यत्र चला गया वह सर्वथा अपने तुल्य अथवा किसी भिन्न स्कन्ध से संयुक्त होकर पुनः उसी आकाश क्षेत्र में आता है। इस अपेक्षा से इसका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्य होता है।
सूत्र १७२ ७. (सूत्र १७२)
आकाश के तीन प्रदेश एक त्रिप्रदेशात्मक आनुपूर्वी द्रव्य से अवगाढ हैं । वे ही आकाशप्रदेश चतुःप्रदेशात्मक, पञ्चप्रदेशात्मक यावत् अनन्तप्रदेशात्मक द्रव्य से भी अवगाढ हैं। इस प्रकार समूचा आकाश एक-एक प्रदेश की वृद्धि युक्त अनेक प्रकार के आनुपूर्वी द्रव्यों से अवगाढ होता है। इस अपेक्षा से आनुपूर्वी द्रव्य के असंख्येय भाग अधिक बतलाए गए हैं । अनानुपूर्वी तथा अवक्तव्य द्रव्यों में अवगाह के ये विकल्प नहीं बनते । इसलिए वे असंख्येय भाग न्यून हो जाते हैं।'
वृत्तिकार हेमचन्द्र ने इसे समझाने के लिए स्थापना का प्रयोग किया है। आकाश के पांच प्रदेश की कल्पना करें। इन पांच प्रदेशों में अनानुपूर्वी द्रव्य पांच रहेंगे। अवक्तव्य द्रव्य आठ और आनुपूर्वी द्रव्य सोलह रहेंगे। देखें-स्थापना
कल्पना करें आकाश के पांच प्रदेश हैं- १. २.
३.
अनानुपूर्वीउपर्युक्त पांच आकाश प्रदेशों में क्षेत्रानुपूर्वी के अनानुपूर्वी द्रव्य (एक प्रदेशावगाढ) पांच ही रह सकते हैंस्थापना I. II.
III.
IV. V. अवक्तव्यक----
इन्हीं पांच प्रदेशों पर यदि अवक्तव्य द्रव्यों (दो प्रदेशावगाढ ) का अवस्थान हो तो उनकी कुल संख्या होगी-८ उनका अवस्थान इस प्रकार होगा
स्थापना १.१-२ आकाश प्रदेशों पर २.१-३ ॥ ३.१-४ ॥
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७.३-५ " " " ८. ४-५ , आनुपूर्वीइन्हीं पांच प्रदेशों पर यदि आनुपूर्वी द्रव्यों की अवस्थिति हो तो कुल संख्या होगी-१६, जिनमेंत्रिप्रदेशावगाढ आनुपूर्वी द्रव्य होंगे-१० चतुष्प्रदेशावगाढ , , ,-५
पञ्चप्रदेशावगाढ , ,होगा-१ १. (क) अहावृ. पृ. ४७ : उत्कृष्टत: असंख्येयं कालं नानन्तं
भावादित्यतिगहनमेतदवहितैर्भावनीयमिति । यथाऽनानुपूामिति, कस्मात् ? सर्वपुद्गलानामवगाह
(ख) अमवृ. प. ७६। क्षेत्रस्य स्थितिकालस्य चासंख्येयत्वात् क्षेत्रानुपूयं धि
२. अमवृ. प. ७६। कारस्य व्याख्येयत्वात्, क्षेत्रानुपूय॑धिकारे च ३. अहावृ. पृ. ४८। क्षेत्रप्राधान्यान्, असंख्येयकालादारतश्च पुनस्तत्प्रदे- ४. अमव. प. ७७। शानां तथाविधाधेयभावेन तथाभूताधारपरिणाम
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