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________________ ३७४ ? ७०६. से किं तं भावसामाइए भावसामाइए दुविहे पण्णले सं जहा- आगमओ व नोआगमओ य ॥ ७०७. से किं तं आगमओ भावसामाइए ? आगमओ भावसामाइए जाणए उब उसे से तं आगमओ भावसामाइए || 1 ७०८. से किं तं नोआगमओ भावसामाइए ? नोआगमओ भावसामाइए - माहा जस्स सामाणिओ अप्पा, संजमे नियमे तवे । तरस सामाइ होइ इइ केवलिभासि ॥१॥ जो समोसव्वभूएसु, तसे थावरे य । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं ॥२॥ जह मम न पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सम्बजीवाण । न हणइ न हणावइ य, सममणती तेण सो समणो ||३|| थिय से कोइ वेसो, पिओ व सव्वेसु चैव जीवेसु । एएण होइ समणो, एसो अन्नो वि पज्जाओ || ४ || उरग गिरि-जल सागरनहतल-तरणसमो व जो होइ ममर-मि-धरण जलरुह-रविपवणसमो य सो समणो ||५|| तो समणो जइ सुमो, भावेण य जइ न होइ पावमणो । सयणे य जणे य समो, समयमाणावा ॥ ६ ॥ सेतं नोआगमन भावसामाइए। से तं भावसामाइए । से तं सामाइए से तं नामनिष्ठण्णे । Jain Education International अब कि तद् भावसामायिकम् ? भावसामायिकं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा -आगमतश्च नोआगमतश्च । अथ किं तद् आगमतो भावसामाकिम् ? आगमतो भावसामायिकम् - ज्ञ उपयुक्तः । तदेत आयतो भाव सामायिकम् । अथ किं तद् नोआगमतो भावसामायिकम् ? नोआगमतो भावसामायिकम् गाथा - यस्य समानीतः आत्मा, संयमे नियमे तपसि । तस्य सामायिकं भवति, इति यः समः सर्वभूतेषु, भाषितम् ॥१॥ सेषु स्थावरेषु च । तस्य सामायिकं भवति, इति विमतिम् ॥२॥ यथा मम न प्रियं दु खं, ज्ञात्वा एवमेव सर्वजीवानाम् । न हन्ति न घातयति च, सममणति तेन स समणः ॥३॥ नास्ति च तस्य कश्चिद् द्वेष्यः, प्रियो वा सर्वेषु चैव जीवेषु । एतेन भवति समना, एष अन्योऽपि पर्यायः || ४ || उरग- गिरि-ज्वलन-सागरनभस्तल - तरुगणसमश्च यो भवति । मर-मृ-धरण जलरह-रविपवनसमश्च स भ्रमणः ||५|| ततः श्रमणो यदि सुमनाः, भावेन च यदि न भवति पापमनाः । स्वजने च जने च समः, समश्च मानापमानयोः ॥ ६ ॥ समोआगमतीभावसामायिकम्। तदेतद भावसामायिकम्। तदेतत सामायिकम् । स एष नामनिष्पन्नः । For Private & Personal Use Only अणुओगदारा ७०६. वह भाव सामायिक क्या है ? भाव सामायिक के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे आगमतः और नोआगमतः । ७०७ वह आगमतः भाव सामायिक क्या है ? आगमतः भाव सामायिक जो जानता है और उसके अर्थ में उपयुक्त है। वह आगमतः भाव सामायिक है । ७०८. वह नोआगमतः भाव सामायिक क्या है ? नोआगमतः भाव सामायिक " गाथा १. जिसकी आत्मा समानीत है" और संयम, नियम और तप में जागरूक है उसके सामायिक होता है, यह केवली द्वारा भाषित है । २. जो त्रस और स्थावर सब जीवों के प्रति सम है, उसके सामायिक होता है, यह केवली द्वारा भाषित है । ३. जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है वैसे ही सब जीवों को दुःख प्रिय नहीं, यह जानकर जो किसी प्राणी की न घात करता है और न करवाता है । इस प्रकार समता में गतिशील होने के कारण वह समण कहलाता है । ४. सब जीवों में कोई उसका द्वेष्य- अप्रिय और प्रिय नहीं है। सब जीवों में सम मन वाला होने के कारण वह समन ( समना ) कहलाता है । वह श्रमण का दूसरा पर्यायवाची नाम है । .१२ ५. जो श्रमण सर्प, गिरि, अग्नि, समुद्र, आकाश, वृक्ष, भ्रमर, मृग, पृथ्वी, कमल, सूर्य और पवन के समान होता है, वह समण है । ६. यदि वह सुमन होता है, भाव से पाप मन वाला नहीं होता, स्वजन और अन्य जन में तथा मान और अपमान में सम होता है तो वह समण है । वह नोआगमतः भाव सामायिक है । वह भाव सामायिक है । वह सामायिक है । वह नाम निष्पन्न निक्षेप है। www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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