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प्र० १ सू० २२ २७, टि० १३
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टीकाकार ने यज्ञ देवता की पूजा के समय दी जाने वाली जलाञ्जलि को इज्याज्ञ्जलि कहा है। प्रकारान्तर से इज्या को देशी शब्द मानकर उसका अर्थ माता किया है । यह माता शब्द देवी का सूचक है । उसके भक्त गर्भ से निकलते हुए बच्चे के हाथ की मुद्रा ( बंधी हुई मुट्ठियों) के रूप में नमस्कार करते हैं वह इज्याञ्जलि है । '
होम
अग्नि में अग्निहोत्रकों द्वारा घृत, नेवैद्य आदि पदार्थों का किया जाने वाला हवन होम कहलाता है ।"
जप
मन्त्र आदि का अभ्यास ।'
दुरुक्क
देव आदि के सामने मुख से वृषभ गर्जन आदि के समान शब्द करना। यह प्रथा तमिलनाडु में आज भी प्रचलित है। अतिथियों के समागमन पर सम्मान के लिए ऐसा किया जाता है। इसका पाठान्तर रूप उंदुरक्क है। उंदु का अर्थ है – मुख और रुक्क का अर्थ है - शब्द करना । यह देशी शब्द है ।
सूत्र २७
सूत्र में एकाग्रता
की विभिन्न दशाओं का चित्रण किया गया है। कोई व्यक्ति करणीय के विषय में समर्पित होकर ही सफलता के शिखर तक जा सकता है। कार्य चाहे अध्यात्म की साधना का हो, चाहे समाज की साधना का सफलता के लिए एकाग्रता और समर्पण अनिवार्य शर्त है । उसी का निदर्शन प्रस्तुत वाक्य श्रृंखला में हुआ
है ।
चित्त- चूर्णिकार ने चित्त के तीन अर्थ किए हैं-२. मति और श्रुतज्ञान
१. आत्मा
३. आवश्यक क्रिया-काल में अर्थ में व्यापृत चेतना ।
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मन - बूमिकार के अनुसार मनोद्रव्य की वर्गणाओं से उपरंजित चित्त मन कहलाता है। दोनों वृतिकारों ने चित्त के विशेष उपयोग (बेतना के विशेष व्यापार) को मन कहा है।'
लेश्या - द्रव्यलेश्या की वर्गणा से उपरंजित चित्त ।
अध्यवसाय - क्रिया के सम्पादन का अध्यवसाय । "
तीव्राध्यवसान - क्रिया के सम्पादन में निरन्तर प्रवर्धमान श्रद्धा वाला अध्यवसाय ।'
अर्थोपयोग - क्रियमाण क्रिया के अर्थ में व्यापृत चेतना का व्यापार ।"
अर्पितकरण -- अपने समस्त शरीर का आवश्यक क्रिया के लिए समर्पण । अथवा क्रिया में हेतुभूत उपकरण, रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि का उचित उपयोग पूर्वक न्यास "
१. ( क ) अहावृ. पृ. १९ : इज्ज्याज्ञ्जलिर्यागांजलिरुच्यते, स
चायवताविषयः मातुर्वाञ्जलिरिजल नमस्कारविधाविति भावः ।
(ख) अमवृ. प. २६ ।
२. (क) अहावृ. पृ. १९ : होमाग्निः - हवनक्रिया । (ख) अमवृ. प. २६ ।
३. ( क ) अहावृ. पृ. १९ : जपो मंत्रादिन्यासः ।
(ख) अमवृ. प. २६ : जपो मंत्राद्यभ्यासः ।
४. (क) अचू. पृ. १३ : देसीवयणतो उंडं मुहं तेण रुक्कंति
सद्दकरणं, तं च वसभढिक्कियाइ ।
(ख) अहावू. पृ. १९ ।
(ग) अमवृ. प. २६ ।
५. अचू. पृ. १३ : णिच्छयणयाभिव्पारण चित्त इत्यात्मा
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जवा मतिसुताभावे चित्तं महवा आवत्सयकरणकाले चेव अण्णोष्णसुत्तत्थकिरियालोयणं चित्तं ।
६. (क) अतू. पृ. १३ : मनोद्रव्योपरं जितं मनः ।
(ख) अहावृ. पृ. १९ : विशेषोपयोगं वा । (ग) अमवृ. प. २७ ।
७. अचू. पृ. १४ : द्रव्यलेश्योपरंजितं लेश्या ।
८. वही, क्रियया करोमीति प्रारम्भकाले मनसाऽध्यवसितम् ।
९. वही, तदेवोत्तरकालं सन्तान क्रियाप्रवृत्तस्य प्रवर्द्धमानश्रद्धस्य तीव्राध्यवसितम् ।
१०. वही, प्रतिसूत्रं प्रत्यर्थं प्रतिक्रियं वाऽर्थेऽस्य साकारोपयोगोपयुको बोते ।
११. यही तस्सा
जाणि सरीररजोहरणादिवाणि दम्बाणि
ताणि किरियाकरणको अाणि ।
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