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________________ अणुओगदाराई भावना भावित-बार-बार किए जाने वाले अनुष्ठान में उसके अनुरूप परिणाम धारा से युक्त होना।' प्रेक्षाध्यान के सन्दर्भ में उक्त शब्दों का विमर्श इस प्रकार किया जा सकता हैचित्त-स्थूल शरीर के साथ कार्य करने वाली चेतना । मन-एक पौद्गलिक संरचना और चित्त के द्वारा संचालित स्मृति, कल्पना और चिन्तन में सक्षम चेतना । लेश्या-आभामण्डल और भावधारा । अध्यवसाय-सूक्ष्मतर शरीर (कर्मशरीर) के साथ काम करने वाली चेतना । अध्यवसान-प्रकृत विषय में तीव्र अध्यवसाय, अभिप्रेरणा। अपितकरण-प्रकृत विषय में समर्पित इन्द्रिय चेतना। भावना-बार-बार दोहराया जाने वाला अभ्यास । इस समूचे विश्लेषण को एक शब्द 'भावक्रिया के द्वारा अभिव्यक्ति दी जा सकती है। भावक्रिया अर्थात् वर्तमान क्रिया में ही मन, वाणी और शरीर का नियोजन । साधनाकाल में भावक्रिया का होना अत्यन्त आवश्यक है। जो साधक वर्तमान में जीना सीख लेता है वह भावक्रिया को साध लेता है। चित्तविक्षिप्तता से बचने का सीधा उपाय भाव क्रिया है। आचारांग में भावक्रिया का यह प्रसंग तदृष्टि, तन्मूर्ति, तत्पुरस्कार तत्संज्ञा और तन्निवेशन के रूप में प्रस्तुत किया गया है।' उत्तराध्ययन में गमनयोग की व्याख्या करते हुए भी तन्मूर्ति, तत्पुरस्कार और उपयुक्त-इन तीन शब्दों का प्रयोग किया गया है।' निशीथ भाष्य में अब्रह्मचर्य के प्रसंग में तच्चित्त और तल्लेश्या शब्द का प्रयोग हुआ है। निशीथ चूर्णिकार ने इन शब्दों की व्याख्या करते हुए एक प्रतीक के रूप में लिखा है-स्त्री आदि के शरीर को देखकर उसके अवयवों के बारे में चिन्तन करना चित्त है और उसके अवयवों के परिभोग करने का अध्यवसाय लेश्या है। निष्कर्षत: चिप्स आदि शब्दों के अर्थ इस प्रकार किए जा सकते हैंचित्त-चैतन्य मन-मननात्मक ज्ञान लेश्या-आभामण्डल अध्यवसाय-सूक्ष्म चेतना अध्यवसान-चैतन्य-परिणाम उपयोग-क्रियमाण अर्थ में व्याप्त चेतना अपितकरण-शरीर आदि का समर्पण भावना-सूक्ष्म चैतन्य परिणाम के अनुरूप अभ्यास । विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य-भगवती भाष्य २३५३-३५७ । - सूत्र २८ १४. (सू० २८) प्रस्तुत गाथा में आवश्यक के आठ पर्यायवाची नामों का उल्लेख किया गया है। १. आवश्यक और (२) अवश्यकरणीयये दो स्पष्ट हैं। ३. ध्रुवनिग्रह - आवश्यक दिनचर्या और रात्रिचर्या का निश्चित रूप से नियमन करने वाला है इसलिए इसका नाम ध्रुवनिग्रह है । मुनि के लिए ध्रुवयोग का विधान है।' आवश्यक भी ध्रुवयोग का एक अंग है इसलिए इसे ध्रुवनिग्रह कहा गया है। सामायिक का फल सावद्ययोग विरति है।' ध्रुवनिग्रह शब्द की सार्थकता उससे फलित हो सकती है। चूर्णिकार ने ध्रुव शब्द के द्वारा कर्म, कषाय और इन्द्रिय का संग्रहण किया है। आवश्यक के द्वारा इनका निग्रह होता है इसलिए इसे ध्रुवनिग्रह कहते हैं।' १. अहावृ.पृ. २०: तद्भावनाभावितः असकृदनुष्ठानात्पूर्व वसरूवचितणं चित्तं, तदंगभोगऽज्झवसाओ लेसा । भावनाऽपरिच्छेदत एव पुनःपुनः प्रतिपत्ते रिति हृदयम् । ५. द. ८.१७ : धुवं च पडिलेहेज्जा । २. आ. ५।६८ : तद्दिट्ठीए तम्मोत्तीए तप्पुरक्कारे तस्सण्णी ६. उ. २९।९ : सामाइएणं सावज्जजोगविरई जणयइ । तन्निवेसणे। ७. अचू पृ. १४ : कम्ममट्ठविहं कसाया इंदिया वा धुवा इमेण ३. उ. २४८ : तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे, उवउत्ते इरियं रिए ।। जम्हा तेसि णिग्गहो कज्जइ तम्हा धुवनिग्गहो, अवस्सं वा ४. निभा. चू. ४, पृ. ३ : तं इत्थिमादी रूपं दटुं तदंगावय णिग्गहो । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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