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________________ प्र० १, सू० २८, टि०१४ ४. विशोधि-इससे भावविशुद्धि होती है इसलिए आवश्यक का एक नाम है-विशोधि । उत्तराध्ययन में चतुर्विशतिस्तव का लाभ दर्शनविशुद्धि बताया गया है। ५. अध्ययनषट्कवर्ग-आवश्यक छह अध्ययनों का समूह है इसलिए इसे अध्ययनषट्कवर्ग कहा जाता है।' ६. न्याय-आवश्यक अभिप्रेत अर्थ की सिद्धि का सम्यक् उपाय है इसलिए इसे न्याय कहते हैं।' ७. आराधना-ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना का हेतु होने के कारण इसका नाम है आराधना। उत्तराध्ययन के अनुसार आराधना का सम्बन्ध स्तवस्तुति मंगल से भी है।' ८ मार्ग-यह आत्मालोचन और आत्मनिरीक्षण की ओर ले जाने वाला है इसलिए आवश्यक का नाम है मार्ग । मलधारी हेमचन्द्र ने अनुयोगद्वार की वृत्ति में ध्रुवनिग्रह की एक नाम के रूप में व्याख्या की है और विशेषावश्यक भाष्य की वृत्ति में ध्रुव और निग्रह की पृथक् पृथक् व्याख्या की है। इसी प्रकार अनुयोगद्वार की वृत्ति में अध्ययनषट्कवर्ग को एक मानकर व्याख्या की है तथा विशेषावश्यक भाष्य की वृत्ति में अध्ययनपटक और वर्ग को अलग-अलग मानकर व्याख्या की है। आवश्यक साधु और श्रावक दोनों के लिए प्रतिदिन करणीय आध्यात्मिक कार्यक्रम है। धर्म की आराधना करने वाले व्यक्ति को प्रतिदिन सामायिक की साधना इसलिए करनी चाहिए कि रागद्वेष की ग्रन्थि सघन न बने । अर्हत् अथवा वीतराग की स्तुति प्रतिदिन इसलिए करनी चाहिए कि उसका दर्शन विशुद्ध रहे। इससे वीतरागता का लक्ष्य स्पष्ट व परिपक्व होता है । वन्दना का प्रयोग इसलिए करना चाहिए कि अहंकार जो साधना का सबसे बड़ा विघ्न है, का विलय होता रहे। प्रतिक्रमण का प्रयोग इसलिए करना चाहिए कि प्रतिदिन होने वाले प्रमाद का परिष्कार या शोधन होता रहे। कायोत्सर्ग प्रतिदिन इसलिए करना चाहिए कि भेद विज्ञान की धारणा पुष्ट बनती रहे, व्रण की चिकित्सा होती रहे। . प्रत्याख्यान प्रतिदिन इसलिए करना चाहिए कि इच्छा का निग्रह और संवर की शक्ति का विकास होता रहे। आवश्यक के छह अध्ययनों के अधिकार प्रस्तुत आगम में आगे (सूत्र ७४ तथा ६१०) में बतलाए गए हैं । १. उ. २९.१० : चउव्वीसत्थएणं सविसोहि जणयइ । २. अचू. पृ. १४ : सामादिकादि गण्यमानानि षडध्ययनानि समूहः वग्गो। ३. वही, णायो युक्तः अभिप्रेतार्थसिद्धिः। ४. उ. २९।१५ : थवयुइमंगलेणं नाणदसणचरित्तबोहिलामं जणयइ। ५. अमवृ. प. २८ : ध्रुवनिग्रह इति अत्रानादित्वात् क्वचिद पर्यवसितत्वाच्च ध्रुवं - कर्म तत्फलभूतः संसारो वा तस्य निग्रहहेतुत्वान्निग्रहो ध्रुवनिग्रहः । ६. विभा. ८७६ को वृत्ति-अर्थतो ध्रुवत्वात् शाश्वतत्वाद् ध्रुवम् । निगृह्यन्ते इन्द्रियकषायादया भावशत्रवोऽनेनेति निग्रहः। ७. अमव. प. २८: सामायिकादिषडघ्ययनकलापात्मकत्वाव ध्ययनषट्कवर्गः। ८. विभा. ८७६ की वृत्ति--सामायिकादिषडध्ययनात्मकत्वादध्ययनषट्कम् । 'वृजी वर्जने' वृज्यन्ते दूरतः परिहियन्ते रागादयो दोषा अनेनेति वर्गः। Jain Education Intemational Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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