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________________ प्र० ६, सू० २११-२३५, टि०४-६ १४६ स्थिति होते ही वह आनुपूर्वी हो जाता है।' अनानुपूर्वी (एक समय की स्थितिवाला) द्रव्य परिणामान्तर (वर्ण, गंध व वर्तमान पर्याय से भिन्न वर्ण, गंध, रस में जाकर पुनः मूल पर्याय में आता है) के कारण दो समय की स्थिति में रहकर पुन: एक समय की स्थिति में आता है तब उसका अन्तर जघन्य दो समय का होता है यदि वह परिणामान्तर में जाकर एक समय में ही पुनः मूल पर्याय में आ जाता है तो अन्तर नहीं रहता है। अवक्तव्य द्रव्य परिणामान्तर के कारण एक समय की स्थिति में रहकर दो समय की स्थिति में आता है, इस अवस्था में उसका जघन्य अन्तरकाल एक समय ही होता है। सूत्र २१९ ६. (सूत्र २१६) प्रस्तुत सूत्र में व्यवहारिक काल विवक्षित है। वह सूर्य की गतिक्रिया से निष्पन्न है। समय-जो सब प्रमाणों का आदि-बिन्दु, परम सूक्ष्म, अभेद्य और निरवयव होता है, काल का वह विभाग समय कहलाता (विशेष जानकारी के लिए द्रष्टव्य सूत्र ४१६) आवलिका-असंख्य समय । आन-संख्यात आवलिकाओं का एक आन (उच्छ्वास) और संख्यात आवलिकाओं का एक अपान (निःश्वास) होता है। प्रस्तुत आगम के ४१७वें सूत्र में 'प्राण' शब्द का उल्लेख है। उसी के आधार पर यहां अध्याहार कर लेना चाहिए। हरिभद्रसूरि ने उच्छ्वास, नि:श्वास और प्राण तीनों की व्याख्या की है। हेमचंद्र ने आनापान का अर्थ आन और प्राण किया है इसलिए अपान को अनुक्त मानना पड़ा और अपान का अर्थ प्राण करना पड़ा। वास्तव में आन का अर्थ उच्छ्वास और अपान का अर्थ निःश्वास मानना संगत है । स्तोक आदि के विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य सूत्र ४१७ का टिप्पण । सूत्र २२६ ७. (सूत्र २२६) आनुपूर्वी के दस प्रकार बतलाए गए है। ये केवल उदाहरण हैं। समग्र दृष्टि से आनुपूर्वी के सैकड़ों प्रकार हो सकते हैं। प्रस्तुत सूत्र का प्रारम्भिक प्रतिपाद्य है आवश्यक । उत्कीर्तन आवश्यक का दूसरा अध्ययन है। इस अध्ययन में २४ तीर्थङ्करों का उत्कीर्तन किया गया है। हरिभद्र ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि अनुयोग द्वार में आवश्यक सूत्र प्रकृत है। अत: आनुपूर्वी के उदाहरण में सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव का उल्लेख होना चाहिए था। उत्कीर्तनानुपूर्वी का उल्लेख क्यों किया गया? इसका समाधान किया गया कि उत्कीर्तन शब्द एक सूचक है । आनुपूर्वी जैसे आवश्यक की होती है वैसे ही आचारांग आदि प्रत्येक अंग की हो सकती है। इस सूचना को दृष्टि में रखकर उत्कीर्तनानुपूर्वी का निर्देश दिया होगा।' सूत्र २३० ८. (सूत्र २३०) द्रष्टव्य सूत्र ५७४.........."गणना संख्या । सूत्र २३४,२३५ ६. (सूत्र २३४,२३५) संस्थान का क्रम उत्कर्ष से अपकर्ष के निरूपण के आधार पर है। समचतुरस्र सबसे उत्कृष्ट संस्थान है। १. समचतुरस्र संस्थान-जिस शरीर की ऊंचाई और चौड़ाई (आरोह और परिणाह) समान होती है। जिस व्यक्ति के १. (क) अहावृ. पृ. ५३ । (ख) अमवृ.प. ८८। २. अहाव.पृ.५४। ३. वही, पृ. ५४ । ४. अमव. प. ९० : 'आण' त्ति आणः एक उच्छ्वास इत्यर्थः, ता एव सङख्येया निःश्वासः, अयं च सूत्रेऽनुक्तोऽपि द्रष्टव्यः, स्थानान्तरप्रसिद्धत्वात् । १. अहावृ. पृ. ५७ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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