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________________ १४८ अणुओगदाराई है उसी प्रदेश का एक समय की स्थितिवाला अनानुपूर्वी द्रव्य, दो समय की स्थिति वाला अवक्तव्य द्रव्य भी अवगाहन करता है। इस प्रकार अचित्त महास्कन्ध चौथे समय में काल की दृष्टि से आनुपूर्वी द्रव्य बनता है। अनानुपूर्वी द्रव्य और अवक्तव्य द्रव्य भी उसी प्रदेश में अवगाढ़ हैं। जहां वे अवगाढ़ हैं वहां आनुपूर्वी द्रव्य की विवक्षा गौण है । इस अपेक्षा से आनुपूर्वी द्रव्य को प्रदेश न्यून कहा गया है। अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्य के आधार क्षेत्र के विषय में दो मत हैं १. अनानुपूर्वी और अवक्तव्य द्रव्य एक द्रव्य की अपेक्षा संख्यातवें भाग, असंख्यातवें भाग, संख्येय भाग, असंख्येय भाग, और देशोन लोक-इन सभी विकल्पों में उपलब्ध हैं। २. अनानुपूर्वी द्रव्य और अवक्तव्य द्रव्य लोक के असंख्यातवें भाग में उपलब्ध हैं। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने दूसरे मत को मान्य किया है और प्रथम मत को आदेशांतर माना है। अवक्तव्य द्रव्य के विषय में एक और आदेशांतर का उल्लेख किया गया है। उसके अनुसार महास्कन्ध को छोड़कर अन्य द्रव्य की जिज्ञासा हो वहां अवक्तव्य द्रव्य पांचवें विकल्प (देशोन) को छोड़कर शेष चारों विकल्पों में उपलब्ध होता है। __अनानुपूर्वी द्रव्य पांचों विकल्पों में उपलब्ध होता है । अचित्त महास्कन्ध के विस्तार और उपसंहार की प्रत्येक अवस्था एक एक समय की होती है। अचित्त महास्कन्ध की अपेक्षा अनानुपूर्वी द्रव्य इन पांचों विकल्पों में उपलब्ध हो सकता है। अवक्तव्य द्रव्य के विषय में तीन आदेश हैं१. वह पांचों विकल्पों में उपलब्ध होता है। २. वह केवल लोक के असंख्यातवें भाग में उपलब्ध है। ३. वह देशोन लोक को छोड़कर शेष चार विकल्पों में उपलब्ध है। प्रथम मत के अनुसार एक दो समय की स्थितिवाला विशाल स्कन्ध लोक के कभी संख्यातवें, कभी असंख्यातवें, कभी संख्येय भागों में, कभी असंख्येय भागों में रह सकता है। कोई विशालतम स्कन्ध लोक के देशोन-अपूर्ण भाग में व्याप्त हो सकता है। दूसरे मत के अनुसार अवक्तव्य द्रव्य केवल लोक के असंख्यातवें भाग में उपलब्ध होता है। शेष चारों विकल्प उन्हें मान्य नहीं है। यह मत चूणि और दोनों वृत्तियों का है। हेमचंद्र ने लिखा है जो काल की अपेक्षा द्विसमय की स्थिति वाला है वह क्षेत्र की अपेक्षा द्विप्रदेशावगाढ ही यहां विवक्षित है और वह लोक के असंख्यातवें भाग में ही होगा।' तीसरा मत चणि और दोनों वृत्तियों में मतान्तर के रूप में उल्लिखित है। उसके अनुसार अवक्तव्य द्रव्य का देशोन लोकव्यापित्व असंभव है। सूत्र २११ ४. (सूत्र २११) द्रव्यानुपूर्वी में जैसे द्रव्यमान प्रदेश के आधार पर आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी और अवक्तव्य की व्यवस्था है वैसे ही क्षेत्रानुपूर्वी में क्षेत्र प्रदेश के आधार पर व कालानुपूर्वी में काल प्रदेश के आधार पर उनकी व्यवस्था की जाती है । अतः कालानुपूर्वी द्रव्य की जघन्य स्थिति तीन समय, अनानुपूर्वी द्रव्य की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति एक समय तथा अवक्तव्य की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति दो समय की होती है। सूत्र २१२ ५. (सूत्र २१२) ___ तीन आदि समय की स्थिति वाला कोई आनुपूर्वी द्रव्य अपने वर्तमान परिणमन को छोड़कर दूसरे परिणमन में एक समय रहकर फिर तीन आदि समय की स्थिति वाले परिणमन में आ जाता है तब एक समय का अन्तर रहता है। जब वह आनुपूर्वी द्रव्य अपने वर्तमान परिणमन को छोड़कर, दूसरे परिणमन में दो समय रहकर फिर तीन आदि समय की स्थिति वाले परिणमन में जाता है तब दो समय का अन्तर रहता है। दो समय से अधिक परिणामान्तर में अवस्थान होने पर अन्तर नहीं होता क्योंकि तीन समय की १. (क) अचू. पृ. ३६,३७ । २. (क) अचू. पृ. ३६,३७ । (ख) अहावृ.पृ. ५१,५२ । (ख) अमव. प.८६,८७ । ३. वही, प. ८७ Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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