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अणुओदाराई
सम्पूर्ण अवयव प्रमाणोपेत होते हैं और जिसकी ऊंचाई आत्मांगुल से १०८ अंगुल होती है, वह समचतुरस्र संस्थान कहलाता है ।" २. न्यग्रोध परिमंडल - नाभि से ऊपर के अवयव प्रमाणोपेत होते हैं। नाभि से नीचे के अवयव प्रमाणोपेत नहीं होते, वह न्यग्रोध परिमंडल संस्थान कहलाता है । "
३. सादि - जिसका नाभि से नीचे का भाग लक्षण युक्त न हो, वह सादि संस्थान कहलाता है। नाम स्वाति संस्थान आया है। वहां स्वाति के अर्थ किए हैं- वल्मीक और शाल्मलि । विशेष विवरण के लिए कोश, भाग ४ पृ० १५५ ।
४. कुब्ज- नाभि से नीचे का भाग लक्षण युक्त किन्तु मध्यभाग विकृत, स्कन्ध का पृष्ठ भाग बढ़ा हुआ हो, वह कुब्ज संस्थान
कहलाता है।
५. वामन - मध्य और गर्दन आदि का ऊपरी भाग लक्षण युक्त, हाथ और पैर आदि का भाग लक्षण हीन होता है वह वामन संस्थान कहलाता है ।"
६. हुण्ड - जिसके सब लक्षण आदि लक्षण के विसंवादी होते है। वह हुण्ड संस्थान कहलाता है ।"
विशेष जानकारी के लिए द्रष्टव्य ठाणं ६।३१ का पाठ और टिप्पण । समचतुरस्र की विशेष जानकारी के लिए देखें भगवई
१।९ का भाष्य ।
सूत्र २३८-२४१
१०. ( सूत्र २३८- २४१ )
दस प्रकार की सामाचारी के लिए देखें - उत्तरज्भयणाणि, अध्ययन २६।१-७ ।
सूत्र २४३
११. ( सूत्र २४३ )
भावानुपूर्वी विवेचन के लिए द्रष्टव्य ० २७२ से २९७
१. अहावृ. पृ. ५७ : समं तुल्यारोहपरिणाहसपूर्णा गोपाङ्गायययस्वांगातोच्छ्रायं समचतुर ।
२. यही नाभीत उपर्यादिलक्षणयुक्तं अधस्तावनु न भवति तस्मात् प्रमाणाद्धीनतरं न्यग्रोधपरिमंडलम् ।
३. अमवृ. प. ९३ : सह आदिना नाभेरधस्तनकाय लक्षणे न वर्तत इति ।
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दिगम्बर साहित्य में इसका द्रष्टव्य - जैनेन्द्र सिद्धांत
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४. अहावू. पू. ५७: नाभीतः अधः आदिलक्षणयुक्तं संक्षिप्तविकृतमध्ये स्कंध पृष्ठदेशमित्यर्थः ।
५. वही, पृ. ५७ : लक्षणयुक्तमध्य ग्रीवाद्युपरिहस्तपादयोरप्यादिलक्षणं न्यूनं च लिंगेऽपि वामनं ।
६. वही, पृ. ५७ : सर्वावयवाः प्रायः आदिलक्षणविसंवादिनो यस्य तत् हुंडम् ।
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