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________________ टिप्पण सूत्र १ १. ज्ञान के पांच प्रकार प्रज्ञप्त हैं । ( णाणं पंचविहं पण्णत्तं ) अनुयोगद्वार व्याख्या के सिद्धांतों, विधियों तथा शिक्षा की प्रविधियों का प्रतिपादन करने वाला आगम है । व्याख्या का सम्बन्ध श्रुतज्ञान से है । इस प्रश्न को ध्यान में रखकर सूत्रकार ने सर्वप्रथम ज्ञानसूत्र का निरूपण किया है। जैन ज्ञान मीमांसा में पांच ज्ञान माने जाते हैं-आभिनिवोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान । इनमें चार ज्ञान शिक्षा और व्याख्या से संबद्ध नहीं हैं। शिक्षा और व्याख्या से सम्बन्ध केवल श्रुतज्ञान का है । इस विश्लेषण की दृष्टि से पहले पांच ज्ञानों का निरूपण किया गया है। फिर चार ज्ञानों को स्थाप्य बतलाकर शिक्षा के लिए श्रुतज्ञान की उपयोगिता बतलाई गई है। ज्ञान का प्रतिपादक सूत्र 'नन्दी' है। किन्तु श्रुतज्ञान का प्रतिपादक सूत्र 'अनुयोग द्वार' है। इस तथ्य को ध्यान में रखकर ज्ञान सूत्र का प्रथम सूत्र के रूप में उपन्यास किया गया है। चूर्णिकार ने प्रथम सूत्र को ज्ञान सूत्र के रूप में उपन्यस्त करने का कारण बताया है- विघ्न का उपशमन । उन्होंने मंगल के चार रूप बताए हैं—नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव भावमंगल में ' णमो अरहंताणं' इस महामंत्र को प्रस्तुत किया है। वैकल्पिक रूप में उन्होंने मंगल का अर्थ किया है 'नन्दी' । नाम, स्थापना और द्रव्य नन्दी का कथन करने के बाद भाव नन्दी के प्रसङ्ग में लिखा है - " णाणं पंचविधं पण्णत्तं" । " हारिभद्रया वृत्ति में ज्ञान की सर्वव्यापकता और अर्थगौरव को ध्यान में रखकर ग्रन्थ की आदि में इसके उपन्यास की सूचना दी है ।" मलधारीया वृत्ति में विघ्न शमन और शिष्टजन सम्मत परम्परा का निर्वाह – इन दो हेतुओं की प्रेरणा से मंगल रूप में ज्ञान- पंचक के ग्रहण का संकेत किया है। व्याख्याकारों ने ज्ञान सूत्र के विषय में जो लिखा है वह आदि मंगल की दृष्टि से लिखा है। वास्तव में प्रारम्भ में ज्ञान सूत्र का उल्लेख शिक्षा और व्याख्या की दृष्टि से किया गया है। सूत्र २ २. चार ज्ञान प्रतिपावन में अक्षम होने के कारण स्वाप्य असंव्यवहार्य हैं अतः स्थापनीय हैं। (चत्तारि नाणाई ठप्पाई ठवणिजाई ) ज्ञान दो प्रकार का होता है—अनुभवात्मक और शब्दात्मक अनुभवात्मक ज्ञान से व्यक्ति स्वयं लाभान्वित होता है और शब्दात्मक ज्ञान से वह अपने अनुभवों को दूसरों तक पहुंचाने में सक्षम बन जाता है। अनुभवात्मक ज्ञान को मूक तथा शब्दात्मक ज्ञान को अमूक कहा जाता है। इन्हें स्वार्थ और परार्थं बोध कहा जा सकता है । न्याय ग्रन्थों में अनुमान के दो भेद किए गए हैं स्वार्थ और परार्थ । मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान का वाणी से कोई सम्बन्ध नहीं है । अतः ये मूक या स्वसंवेद्य होने से स्वार्थ हैं । श्रुतज्ञान स्वार्थ भी है और परार्थ भी । जो श्रुतज्ञान है शब्दोन्मुख है पर अब तक शब्दात्मक नहीं बना है वह स्वार्थ है । शब्दजनित श्रुतज्ञान भी स्वार्थ है । जो १. अचू. पृ. १ : तं च काउकामो गुरू विग्घोवसमणिमित्तं आदीए मंगलपरिग्गहं करेइ, तच्च मंगलं चउविहंपि णामादि णिक्खिवियव्वं तत्थ णामठवणादव्वं मंगलेसु विहिणा खाते भावमंगलाहिगारे पत्ते भणेति णमो अरहंताणं' इच्चादि, अहवा मंगला गंदी, सा चतुविधा णामादि, इहंपि णामवणादन्वनंदीवक्खाण कते Jain Education International भावनंदीऽवसरे पत्ते भणति 'णाणं पंचविधं पण्णत्तं' । २. अहावृ. पृ. १ : सकलाध्ययनव्यापकत्वान्महार्थत्वाच्चादावेव मङगलशब्दाभिधानपूर्वकमुपन्यासमुपदर्शयता ग्रन्थकारेणे दमभ्यधायि । ३. अमवृ. प. ३ : तदुपशमार्थं शिष्टसमयपरिपालनार्थं चादौ मंगलरूपं सूत्रमाह- 'नाणं पंचविहं' । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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