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अणुओगदाराई श्रुतज्ञान दूसरों को समझाने के लिए शब्दबद्ध हो जाता है वह परार्थश्रुत की कोटि में आता है ।
___ जो सुना जाता है वह श्रुत है। यह इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है । इसका प्रवृत्तिलभ्य अर्थ है-वाच्य-वाचक के सम्बन्ध से होने वाला ज्ञान । इसके अनुसार पौद्गलिक शब्द श्रुत है । यह श्रुत पौद्गलिक होने से आत्मा का भाव नहीं हो सकता । परमार्थतः श्रुतज्ञान जीव है। जो श्रुतज्ञान व्यवहार में उपयोगी बनता है वह द्रव्यश्रुत होता है ।
श्रुतज्ञान के अतिरिक्त शेष ज्ञान शब्दातीत हैं । अतः वे अपने स्वरूप का विश्लेषण करने में असमर्थ हैं। असमर्थता के कारण ही वे स्थाप्य हैं । चूर्णिकार और टीकाकार के अनुसार स्थाप्य का अर्थ है असंव्यवहार्य ।' जिसका दूसरों के लिए उपयोग हो सके वह व्यवहार्य होता है । एक व्यक्ति के मतिज्ञान आदि का दूसरे के लिए उपयोग नहीं होता-दूसरा कुछ जान नहीं पाता इसलिए ज्ञान-चतुष्टय असंव्यवहार्य है। अनुयोगद्वार शिक्षा व व्याख्या की पद्धति का सूत्र है। शिक्षा क्रम में अनुपयोगी होने के कारण चार ज्ञान उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग की क्रियाओं में स्थापनीय हैं। श्रुतज्ञान शब्दात्मक है इसलिए वह संव्यवहार्य और लोकोपकारक है। इसलिए उसके उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग होते हैं ।
मतिज्ञान आदि चार ज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम अथवा क्षय से निष्पन्न होते हैं। श्रुतज्ञान श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से निष्पन्न होता है। किन्तु उसके साथ दो नियम भी जुड़े रहते हैं—मतिपूर्वकता और परोपदेश । श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है, यह एक नियम है। इसका दूसरा नियम है-परोपदेश । प्रत्येक बुद्ध आदि के श्रुतज्ञान भी स्वतः होता है। किन्तु सामान्यतः वह गुरु के अधीन है। पराधीन होने पर भी वह वस्तु के स्वरूप का बोध कराने में समर्थ है। विशेषावश्यक भाष्य में कहा गया
दीपक अपनी उत्पत्ति में पराधीन होने पर भी स्व और पर को प्रकाशित करता है। इसी प्रकार श्रुतज्ञान भी स्व और पर स्वरूप का विश्लेषण करने में समर्थ है । पर-प्रबोधक होने से ही वह शिक्षा अथवा व्याख्या के लिए अधिकृत है।"
प्राचीन काल में अध्ययन के स्रोत थे -गुरु । शास्त्र लिखे नहीं जाते थे। उन्हें कण्ठस्थ रखने की परम्परा थी। इस स्थिति में अध्ययन की गुरुगम व्यवस्था का विकास हुआ । उसका प्रतिपादन उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग-इन चार पदों द्वारा किया गया है। विद्यार्थी शिष्य पहले गुरु से पढ़ने की आज्ञा प्राप्त करता। फिर वह परिवर्तना के द्वारा पढ़े हए ज्ञान को स्थिर रखने का अभ्यास करता। तीसरे चरण में उसे अध्यापन की अनुमति प्राप्त होती। चौथे चरण में उसे अनूयोग या व्याख्या करने की स्वीकृति मिलती।
चूर्णिकार ने इस अध्ययन-पद्धति की विस्तृत जानकारी दी है। दोनों वृत्तिकारों ने भी उसी का अनुसरण किया है।
गुरु-शिष्य का सम्बन्ध बड़ा महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध है । इस सम्बन्ध की सार्थकता है ज्ञान की उपलब्धि । गुरु शिष्य को बहुत कुछ दे सकता है, यदि शिष्य पाने के योग्य हो । योग्यता का पहला मानदण्ड है-विनय । जो शिष्य विनीत और समर्पित होता है, वह अपनी चर्या और अध्ययन के सम्बन्ध में स्वयं कोई निर्णय नहीं लेता। वह आचार्य के निकट उपस्थित होकर कहता है-"आपकी इच्छा हो तो मुझे किसी आगम की वाचना दे।" गुरु की दृष्टि शिष्य को परखती है। योग्य शिष्य को वाचना की आज्ञा मिल जाती है। गुरु की अनुज्ञा पाकर शिष्य स्वाध्याय के लिए पूर्व तैयारी करता है । वन्दन करता है। पच्चीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग करता है। प्रदक्षिणा करता है। उपधान करता है और अन्य कई प्रकार के अनुष्ठानों को सम्पादित करके अन्त में फिर कायोत्सर्ग करता
चूर्णिकार ने उद्देशन की जिस विधि का निरूपण किया है, उस में बार-बार वन्दन करने का विधान है । इसके दो उद्देश्य हो सकते हैं-अहंकार-विसर्जन और प्रमाद-परिहार । गुरु की आज्ञा से शिष्य पढ़े हुए पाठ की परिवर्तना करता है, उसे आत्मसात करता है और अन्य साधूओं को पढ़ाता भी है।
अनुयोगकाल में तिथि, करण, नक्षत्र, मुहर्त आदि की प्रशस्तता को आवश्यक माना गया है। शिष्य को अनुयोगी बनाने के
१. (क) नसुनं. ३५ : सुणेइत्ति सुयं ।
(ख) विभा. ९८ : जं सुणइ तं सुयं भणियं । २. विभा. ९९ : सुयं तु परमत्थओ जीवो। ३. (क) अचू. पृ. २ : 'ठप्पाई' ति असंववहारियाई ति बुत्तं
भवति । (ख) अमवृ. प. ३ : 'ठप्पाई' ति स्थाप्यानि
असंव्यवहार्याणि ।
४. (क) नसुनं. ३५ : मइपुव्वं सुयं, न मई सुयपुब्विया । (ख) तसू. १११ : तत्पूर्वकत्वात् परोपदेशत्वाच्च
श्रुतज्ञानम्। ५. विभा. ८३९ : पाएण पराहीणं दीवोव्व परप्पबोहयं जं च ।
सुयनाणं तेण परप्पबोहणत्थं तदणुओगो॥ ६. अचू. पृ. २
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