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प्र० १, सूत्र ५, टि० ४,५
१५ लिए गुरु कुछ मंत्रपदों का उच्चारण करता है और अपनी निषद्या पर शिष्य को बिठाता है। इससे ज्ञात होता है कि उद्देश, समुद्देश और अनुज्ञा से भी अधिक महत्त्व अनुयोग का है।
मलधारीया वृत्ति में उद्देशन की समग्र विधि का निरूपण इसी प्रकार है। वृत्तिकार ने चूर्णिकार द्वारा लिखित विधि को सामाचारी के रूप में स्वीकृत किया है । इसके साथ ही उन्होंने कुछ अन्य विधियों की सूचना देते हुए लिखा है-सामाचारियों में बहुत विचित्रता होती है । इसीलिए भिन्न प्रकार की सामाचारी सामने आने पर दिग्भ्रांत नहीं होना चाहिए।
चूर्णिकार और वृत्तिकारों द्वारा निरूपित अध्ययन की परम्परा से कुछ बातें अवश्य फलित होती हैं० दीर्घकाल तक शिष्य को गुरु के सान्निध्य की प्राप्ति । ० गुरु के प्रति शिष्य का सर्वात्मना समर्पण । ० अध्ययन काल में ध्यान, कायोत्सर्ग, तपस्या आदि का प्रयोग । • मंत्रोच्चारण आदि कुछ विशेष विधियों का प्रयोग।
• गुरु के सामने ही शिष्य का अध्यापन कार्य । शब्द विमर्श
१. उद्देश (उद्देशो) पढ़ने की आज्ञा । २. समुद्देश (समुद्देशो) पढे हुए ज्ञान के स्थिरीकरण का निर्देश । ३. अनुजा (अणुण्णा) अध्यापन की आज्ञा । ४. अनुयोग (अणुओगो) व्याख्या ।
४. प्रस्तुत प्रस्थापना की दृष्टि से आवश्यक श्रुत का........ अनुयोग प्रवृत्त है। (इमं पुण पट्टवणं पडुच्च आवस्सयस्स अणुओगो)
प्रस्थापना का अर्थ है-प्रारम्भ । अध्ययन के चारों अंग उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग-ये अंग-प्रविष्ट और अंगबाह्य सभी आगमों के होते हैं।
फिर यहां आवश्यक सूत्र का ही अनुयोग क्यों किया गया? यह प्रश्न अस्वाभाविक नहीं है। चूर्णिकार एवं वृत्तिकार हरिभद्र ने इस प्रश्न पर कोई विचार नहीं किया। मलधारीया वृत्ति के अनुसार आवश्यक सब सामाचारियों का मूल है। इसलिए शेष आगमों को छोड़ इसे प्राथमिकता देकर इसकी व्याख्या की गई है। इस कथन के आधार पर यह स्वीकार किया जा सकता है कि प्रत्येक साधु-साध्वी एवं श्रावक-श्राविका के लिए आवश्यक अवश्यकरणीय है। इसलिए प्रारम्भ में इसका अनुयोग किया गया
५. निक्षेप (निक्खेवं)
हमारा व्यवहार तीन प्रकार का होता है -शब्दाश्रयी, ज्ञानाश्रयी और अर्थाश्रयी। व्यवहार की सम्यग् योजना करने के लिए जिस पद्धति का अनुसरण किया जाता है उसका नाम है-निक्षेप। द्रव्य अनन्तपर्यायात्मक होता है। उन अनन्त पर्यायों को जानने के लिए अनन्त शब्द आवश्यक हैं । शब्दकोश में शब्द बहुत सीमित हैं। हम संकेतविधि के अनुसार एक शब्द का अनेक अर्थों में प्रयोग करते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि पाठक अथवा श्रोता विवक्षित अर्थ को पकड़ नहीं पाता। फलत: अनिर्णय की स्थिति बन जाती है।
निक्षेप का प्रयोजन है-वाक्य-रचना का ऐसा विन्यास जिससे पाठक अथवा श्रोता विवक्षित अर्थ को ग्रहण कर सके । इसके लिए प्रत्येक पर्याय के लिए विशेषण-युक्त वाक्य-रचना अपेक्षित है। उदाहरण के लिए वस्तु को चतुष्पर्यायात्मक मान कर विचार करें। वे चार पर्याय हैं
१. नाम-नाममूलक व्यवहार के लिए नाम ।
१. अचू. पृ. ३,४ २. अमवृ. प. ४ ३. अचू. पृ.५: पढवणं प्रारंभ: प्रवर्त्तनेत्यर्थः ।
४. अमवृ.प.६ : सकलसामाचारीमूलत्वादस्यवेह शेषपरिहारेण व्याख्यानादिति भावनीयम् ।
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