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________________ अणुओगदाराई २. स्थापना-आरोपणमूलक व्यवहार के लिए स्थापना । ३. द्रव्य-अतीत एवं भावी पर्यायमूलक व्यवहार के लिए द्रव्य । ४. भाव-वर्तमान पर्यायमूलक व्यवहार के लिए भाव । नाम का अर्थ है-संज्ञाकरण। संज्ञा के द्वारा वस्तु का अवबोध होता है इसलिए नाम वस्तु का एक पर्याय है। आकृति ग आरोपण के द्वारा वस्तु का बोध होता है इसलिए स्थापना वस्तु का एक पर्याय है। वस्तु के अतीत और भावी पर्याय को जानना भी हमारे व्यवहार के लिए आवश्यक है । अतीत और भावी पर्याय को जानने के लिए द्रव्य निक्षेप उपयोगी है। वर्तमान पर्याय को जानने के लिए उपयोगी है-भाव निक्षेप।' जिनभद्रगणि ने एक ही वस्तु में चार पर्यायों की संयोजना की है, जैसे-वस्तु का अपना अभिधान नाम निक्षेप है । वस्तु का अपना आकार स्थापना निक्षेप है । वस्तु भूत और भावी पर्याय का कारण है इसलिए द्रव्य निक्षेप है। कार्यरूप में विद्यमान वस्तु भावनिक्षेप है । घड़े का 'घट' नाम नामनिक्षेप है । घट का पृथु, बुध्न, उदर आकार है वह स्थापना निक्षेप है। मृत्तिका घट का अतीतकालीन पर्याय है, कपाल घट का भविष्यकालीन पर्याय है। ये दोनों पर्याय घट पर्याय से शून्य होने के कारण द्रव्य हैं । कार्यापन्न पर्याय-घट रूप में परिणत पर्याय-भाव निक्षेप है । शास्त्रकार की प्रवृत्ति परव्युत्पादन के लिए होती है । 'पर' (श्रोता अथवा पाठक) तीन प्रकार का होता है' १. संक्षेपरुचि, २. विस्ताररुचि, ३. मध्यमरुचि । आगे रचनाकार ने उक्त श्रोता अथवा पाठक के चार प्रकार किए हैं'१. व्युत्पन्न ३. संदिग्ध २. अव्युत्पन्न ___४. विपर्यस्त धवला में निक्षेप की उपयोगिता के चार कोण बतलाए हैं:१. अव्युत्पन्न श्रोता यदि पर्यायार्थिक दृष्टि वाला है तो अप्रकृत अर्थ का निराकरण करने के लिए निक्षेप करना चाहिये । २. यदि वह द्रव्याथिक दृष्टि वाला है तो प्रकृत अर्थ का निरूपण के करने के लिए निक्षेप करना चाहिये । ३. यदि व्युत्पन्न होने पर भी संदिग्ध है तो उसके सन्देह का निराकरण करने लिए निक्षप करना चाहिए। ४. यदि वह विपर्यस्त है तो तत्त्वार्थ-निश्चय के लिए निक्षेप करना चाहिये। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने 'नि' के दो अर्थ बतलाए हैं-नियत और निश्चित। जो निक्षेपण नियत और निश्चित अर्थ की ओर ले जाता है वह निक्षेप है। मनुष्य ज्ञाता है और घट ज्ञेय है। ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध कैसे स्थापित हो सकता है ? यह एक दार्शनिक प्रश्न है। इस प्रश्न को जैन दर्शन में निक्षेप पद्धति के द्वारा सुलझाया गया है। हमारा ज्ञान परोक्ष है। इसीलिए हम किसी भी वस्तु को सर्वात्मना साक्षात् नहीं जान सकते। हम उसे किसी माध्यम से ही जानते हैं। माध्यम के द्वारा ज्ञाता का ज्ञेय के साथ संबन्ध स्थापित होता है। माध्यम की श्रृंखला में प्रमुख तत्त्व दो हैं-नाम और रूप । वस्तु का हमारे ज्ञान में अवतरण करने के लिए या तो नाम में निक्षेपण करना होता है अथवा किसी रूप या आकृति में । वस्तु अनन्तधर्मात्मक है । हम उस अखंड वस्तु को नहीं जान सकते । उसे किसी एक पर्याय के माध्यम से जानते हैं । काल की दृष्टि से उसके तीन पर्याय हैं -- भूतपर्याय, भावीपर्याय और वर्तमानपर्याय । भूतपर्याय में भी वस्तु का उपचार या निक्षेपण किया जाता है। इन पर्यायों का सम्यक् ज्ञान करने के लिए विवक्षित वस्तु के पीछे विशेषण का प्रयोग किया जाता है जैसे-ज्ञ शरीर द्रव्य और भावी शरीर द्रव्य । इन दोनों अवस्थाओं में चेतना की प्रवृत्ति नहीं होती, इसलिए ये पर्याय द्रव्य कहलाते हैं। जिस क्रिया के साथ चेतना जुड़ी रहती है उसे भाव कहा जाता है। विषय और विषयी का सम्बन्ध तथा शब्द और अर्थ का सम्बन्ध तभी स्पष्ट होता है जब वस्तु का ज्ञान अथवा शब्द में १. विभा. ६० विस्ताररुचिः मध्यमरुचिश्चेति । अहया वत्थूभिहाणं नाम ठवणा य जो तयागारो। ३. वही पृ. २२ : स च त्रिविधोऽपि परः प्रत्येक चतुर्धा कारणया से दवं कज्जावन्नं तयं भावो ॥ भिद्यते- व्युत्पन्नः, अव्युत्पन्न:, संदिग्धः, विपर्यस्तश्च । २. न्याकु. १ पृ. २२ : परव्युत्पादनार्था हि शास्त्रकृतः प्रवृत्तिः। ४. ध. १११,१,१।३०-३१ न चाभिधेयादिरहितं शास्त्रं कुर्वता परो व्युत्पादितो ५. विभा. ९१२: भवति, तथाविधस्यास्य परप्रतारकत्वप्रसङ्गात् । स च निक्खिप्पइ तेण तहि तओ व निक्खेवणं व निक्खेवो । व्युत्पाद्यत्वेनाभिप्रेतः। परस्त्रिधा भिद्यते -संक्षेपरुचिः, नियओ व निच्छिओ वा खेवो नासो ति जं भणियं । For Private & Personal Use Only Jain Education Intemational www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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