SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२२ अणुओगदाराई लाने जा रहा हूं वह काठ को छेद रहा है और कहता है-मैं प्रस्थक छेद रहा हूं। वह काष्ठ को छील रहा है, उकेर रहा है और प्रमार्जित कर रहा है और कहता है मैं प्रस्थक को छील रहा हूं, उकेर रहा हूं और प्रमाजित कर रहा हूं। ये तीनों व्यपदेश कारण में कार्य का उपचार कर किए जाते हैं। नैगमनय के उक्त तीनों भेदों का आधार प्रस्थक निर्माण की दूरी और निकटता है । प्रथम क्रिया में केवल प्रस्थक का संकल्प है। दूसरी में प्रस्थक के उपादान का ग्रहण है और तीसरी क्रिया में प्रस्थक का निर्माण किया जा रहा है । इस प्रकार जैसे-जैसे निर्माण का व्यवधान कम होता जाता है वैसे-वैसे दृष्टिकोण विशुद्ध होता जाता है। व्यवहारनय व्यवहारनय लोक-व्यवहार को मान्य करता है इसलिए इसका दृष्टिकोण नैगमनय के समान ही है। संग्रहनय संग्रहनय, नैगम और व्यवहारनय से विशुद्धतर है। इसके अनुसार चित (धान्य से व्याप्त) मित (धान्य से परिपूर्ण) और मेय-समारूढ (मेय से युक्त) प्रस्थक को प्रस्थक कहा जाता है। संग्रहनय विशेष को मान्य नहीं करता इसलिए उसमें अर्थक्रियाकारित्व-काल की अवस्था वाला प्रस्थक ही प्रस्थक है।' ऋजसूत्रनय ऋजुसूत्रनय पर्याय को ग्रहण करता है। यह स्वरूप की निष्पत्ति के बाद अपनी क्रिया में हेतुभूत प्रस्थक को भी प्रस्थक मानता है और उसके द्वारा मापे गए धान्य आदि को भी प्रस्थक मानता है। व्यवहार में प्रस्थक और उसके द्वारा मापी गई वस्तु दोनों के लिए प्रस्थक शब्द का प्रयोग इष्ट है। ऋजुसूत्रनय की दृष्टि में अतीत नष्ट और अनागत अनुत्पन्न होने से असत् होते हैं। यह वर्तमानग्राही होने के कारण संग्रहनय की अपेक्षा विशुद्धतर है। कषाय पाहुड़ के अनुसार जिस समय धान्य मापा जाता है उस समय प्रस्थक को प्रस्थक कहा जाता है।' शब्दनय शब्दनय भाव प्रधान होते हैं इसलिए वे अर्थ को मान्य नहीं करते। उनके मतानुसार प्रस्थक के अर्थ का ज्ञाता ही वास्तव में प्रस्थक कहलाता है। इस दृष्टिकोण को स्पष्ट करने वाला सूत्र है 'जस्स वा वसेणं पत्थओ निष्फज्जई। प्रस्थक प्रमाण के दो नियम हैंप्रस्थक के अर्थ का ज्ञान होना। प्रस्थक के अर्थ में उपयुक्त (दत्तचित्त) होना। इन दो नियमों का अनुसरण किए बिना मानात्मक प्रस्थक निष्पन्न नहीं होता अतः प्रस्थक का ज्ञाता और उसमें उपयुक्त व्यक्ति ही प्रस्थक होता है। शब्दनयत्रयी के अनुसार सब वस्तु अपनी आत्मा में हैं, बाह्य जगत् में नहीं, जैसे जीव में चेतना । प्रस्थक प्रमाण है, प्रमाण नियमत: ज्ञान होता है इसलिए काष्ठ-पात्र प्रस्थक नहीं हो सकता। अतः प्रस्थक का ज्ञान और उपयोग ही वास्तव में प्रस्थक है।' जिनभद्रगणी ने शब्दनयत्रयी के अभिप्राय पर विस्तार से विमर्श किया है। उनके अनुसार जो मान है वह प्रमाण है । प्रमाण परिच्छेदात्मक होता है और वह जीव का स्वभाव है, वह जीव से भिन्न नहीं होता अतः काष्ठ पात्र प्रमाण नहीं हो सकता। १. (क) अहावृ. पृ. १०५। ४. कपा. पृ. २२४,२२५ : यदैव धान्यानि मिमीते तदैव (ख) अमवृ. प. २०६। प्रस्थः, प्रतिष्ठन्तेऽस्मिन्निति प्रस्थव्यपदेशात् । २. अहाव. पृ. १०५ : सामान्यमात्रयाही संग्रह : चितो. ५. अहाव. पृ. १०६ : त्रयाणां शब्दसमभिरूढवम्भूतानां प्रस्थधान्येन व्याप्तः, स च देशतोऽपि भवत्यत आह ---मित:--- कार्थाधिकारज्ञः प्रस्थकः, तदव्यतिरिक्तो ज्ञाता तल्लक्षण: पूरितः अनेनैव प्रकारेण मेयं समारूढं । एव गृह्यते, भावप्रधानत्वाच्छब्दादिनयानां, यस्य वा बलेन ३. (क) वही, ऋजुवर्तमानसमयाभ्युपगमावतीतानागतयोवि प्रस्थको निष्पद्यते इति, स चापि प्रस्थकज्ञानोपयोगमन्तरेण नष्टानुत्पन्नत्वेनाकुटिलं सूत्रयति ऋजसूत्रस्तस्य न निष्पद्यत इत्यतोऽपि तज्ज्ञोपयोग एव परमार्थत. प्रस्थकनिप्फण्णस्वरूपार्थक्रियाहेतुः प्रस्थकोऽपि प्रस्थको मिति च। वर्तमानस्तस्मिन्नव मानादि प्रस्थकः । (ख) अमवृ. प. २०६। ७. विभा. २२४३-४६ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education Intemational
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy