SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 251
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१४ अणुओगदाराई 'पुष्पितकुटजकदम्बः' इस पद में पुष्पित, कुटज और कदम्ब ये तीन शब्द हैं। समास होने के बाद यह किसी दूसरे गिरि आदि मुख्य पद का विशेषण बन जाता है।' सूत्र ३५४ २२. द्विगु (दिगू) जिस तत्पुरुष समास में पूर्वपद संख्यावाचक होता है वह द्विगु समास कहलाता है, जैसे-त्रिकटुकम्,त्रिसरम् आदि। 'सर' शब्द के तीन अर्थ हैं - शर, स्वर और सरस् । यहां सरस् अर्थ का ग्रहण किया गया है। सूत्र ३५५ २३. तत्पुरुष (तप्पुरिसे) जिस समास में उत्तरपद की प्रधानता हो वह तत्पुरुष समास कहलाता है, जैसे-राज्ञः पुरुषः-राजपुरुषः। जिस तत्पुरुष समास में विशेषण और विशेष्य में तुल्यार्थ में प्रयोग हो वह कर्मधारय तत्पुरुष समास होता है, जैसे-धवलो बसहो-धवलवसहो।' सूत्र ३५६ २४. अव्ययीभाव (अव्वईभावे) जिस समास में पूर्वपद की प्रधानता हो वह अव्ययीभाव समास कहलाता है, जैसे-ग्रामस्य पश्चात् अनुग्रामम् । इसमें अनु अव्यय के द्वारा अर्थबोध होता है।' सूत्र ३५७ २५. एकशेष (एगसेसे) जिस समास में एक समान रूप वाले अनेक शब्दों में एक शब्द शेष रहता है वह एकशेष समास कहलाता है। जो शब्द शेष रहता है वह अपने तथा लुप्त शब्दों के अस्तित्त्व का बोधक होता है। इस दृष्टि से एकशेष समास द्विवचन और बहुवचन में ही होता है। जहां एक ही शब्द हो वहां लोप और शेष घटित नहीं हो सकते । दो शब्दों में एक का लोप होने पर शेष शब्द द्विवचन में प्रयुक्त होता है जैसे-जिनश्च जिनश्च-जिनौ। तीन या तीन से अधिक शब्दों में एक शेष रहने पर बहुवचन का प्रयोग होता है, जैसे-जिनश्च जिनश्च जिनश्च-जिनाः। इसका उदाहरण है --- 'जहा एगो पुरिसो तहा बहवे पुरिसा' जैसे एक पुरुष वैसे बहुत पुरुष। बहुत पुरुषों या व्यक्तियों में एक शेष की बात ठीक है पर एक ही पुरुष में एक शेष की क्या उपयोगिता है ? मलधारी हेमचन्द्र ने इसका आशय इस प्रकार स्पष्ट किया है --'एगो पुरिसो' यह एकवचनान्त प्रयोग अनेक पुरुषों के अस्तित्व का सूचक है क्योंकि यहां एकवचन का प्रयोग पुरुष जाति के लिए किया गया है। जहां अनेक व्यक्तियों के स्वतंत्र अस्तित्त्व की विवक्षा हो वहां बहुवचन का प्रयोग स्वतः सिद्ध है। सूत्र ३५८ २६. तद्धितज (तद्धितए) यहां तद्धित शब्द के द्वारा तद्धित प्रत्यय के हेतुभूत अर्थ का ग्रहण करना चाहिए। तुन्नाय, तन्तुवाय जैसे शब्दों में तद्धित १. (क) अहावृ. पृ. ७३ : 'अन्यपदार्थप्रधानो बहुव्रीहिः' ४. (क) अहावृ. पृ. ७३,७४ : ग्रामस्य समीपे ग्रामेणोत्तरपुष्पिताः कुटजकदम्बा यस्मिन् गिरी सोऽयं गिरिः पदेन अव्ययीभावः समासः, ग्रामस्तूपलक्षणमात्रं पुष्पितकुटजकदम्बः । समास: अतः पूर्वपदार्थप्रधानः । २. (क) अहाव. पृ. ७३ : संख्यापूर्वो द्विगुरिति द्विगुसंज्ञा । (ख) अमवृ. प. १३६। (ख) अम. प. १३६ । ५. (क) अहाव. पृ. ७४ : सरूपाणामेकशेष एकविभक्ताविति ३. (क) अहाव. पृ. ७३ : तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्म समानरूपाणां एकविभक्तियुक्तानां एकः शेषो भवति धारयः, धवलश्चासौ वृषभश्च विशेषणविशेष्यबहुल -सति समास एक: शिष्यते, अन्ये लुप्यन्ते । मिति तत्पुरुषः । (ख) अमवृ. प. १३६ । (ख) अमवृ. प. १३६ । ६. अमवृ. प. १३६ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy