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________________ ३१४ ६००. तेण परं अजहण्णमणुक्कोसयाई ठाणाई जाव उक्कोसयं जुत्ताणंतयं न पावइ || ६०१. उक्कोसयं जुत्ताणंतयं केत्तियं होइ ? जहण्णएणं जुत्ताणंतपणं अभवसिद्धिया गुणिया अण्णमण्णभासो रुवणो उक्कोस जुत्ताणंतयं होइ । अहवा जहणयं अनंताणंतयं स्वर्ण उनकोसयं जुत्ताणंतयं होइ ॥ ६०२. जहुरणयं अनंतानंतयं केलियं होइ ? जहणयं जुत्ताणंतएणं अमवसिद्धिया गुणिया अण्णमण्णभासो पsिपुण्णो जहण्णयं अणंताणंतयं होइ । अहवा उक्कोसए जुत्ताणंतए रूवं पखितं जहणणयं अनंताणंत होइ ॥ ६०३. ते परं अजहरणमगुक्कोसयाई ठाणाई से तं गणणाखा ॥ 1 ६०४. से कि तं भावसंखा ? भावसंखा -जे इमे जोवा संखगइनामगोत्ताइं कम्माई वेदेति । से तं भावसंखा । से सं संयम से तं भावप्य माणे से तं पमाणे ॥ ( पमाणे ति पर्व समतं ) ॥ Jain Education International ततः परम् अजघन्योत्कर्षकाणि स्थानानि यावद् उत्कर्षकं युक्तानन्तकं न प्राप्नोति । उत्कर्ष युस्कानन्तर्क कियद भवति ? जघन्यकेन युक्तानन्तकेन अवसिद्धिका गुणिताः अन्योन्याभ्यासः रूपोन: उत्कर्षकं युक्तानन्तकं भवति । अथवा जघन्यकम् अनन्तानन्तकं रूपोनम् उत्कर्ष कं युक्तानन्तकं भवति । जयपथम् अनन्तानन्तर्क भवति ? जयम्यकेन युक्तान्तकेन अभवसिद्धिकाः गुणिताः अन्योन्याभ्यासः प्रतिपूर्ण : जघन्यकम् अनन्तानन्तकं भवति । अथवा उत्कर्ष युक्तान् रूपे प्रक्षिप्ते जधन्यकम् अनन्तानन्तकं भवति । ततः परम् अजघन्योत्कर्षकाणि स्थानानि । सा एषा गणनासंख्या । अथ किं ते भावशंखा: ? भावशंखाः ये इमे जीवाः शंखगतिनामगोत्राणि कर्माणि वेदयन्ति । ते एते भावाः। तदेतत संख्यामाम् । तदेतद् भावप्रमाणम् । तदेतत् प्रमाणम् । (प्रमाणमिति परं समाप्तम्) । For Private & Personal Use Only अणुओगदाराई ६००. जघन्य युक्त अनन्त से आगे उत्कृष्ट युक्त-अनन्त से पूर्व बीच के सभी स्थान अजघन्यअनुत्कृष्ट युक्त होते हैं। ६०१. उत्कृष्ट युक्त-अनन्त कितना होता है ? जघन्य युक्त-अनन्त को अभवसिद्धिक जीवों की संख्या से गुणित करने पर अथवा जघन्य युक्त - अनन्त और जघन्य युक्त-अनन्त प्रमाण राशियों को परस्पर गुणित करने पर जो संख्या आती है, उससे एक कम उत्कृष्ट युक्त-अनन्त होता है । अथवा एक कम जघन्य अनन्त - अनन्त उत्कृष्ट युक्त-अनन्त होता है । ६०२. जघन्य अनन्त-अनन्त कितना होता है ? जघन्य युक्त-अनन्त से अभवसिद्धिक जीवों को गुणित करने पर अथवा जघन्य युक्त-अनन्त और जघन्य युक्त-अनन्त प्रमाण राशियों को परस्पर गुणित करने पर जो राशि आती है वह प्रतिपूर्ण राशि जघन्य अनन्त - अनन्त होती है। अथवा उत्कृष्ट युक्त-अनन्त में एक का प्रक्षेप करने पर जघन्य अनन्त अनन्त होता है। ६०३. जघन्य अनन्त अनन्त से आगे सभी स्थान अजघन्य - अनुत्कृष्ट अनन्त अनन्त होते हैं । वह गणना संख्या है।" ६०४. वह भाव शंख क्या हैं ? जो जीव शंख गति नाम गोत्र कर्म का वेदन करते हैं। वह भाव शंख हैं। वह संख्या प्रमाण है । वह भाव प्रमाण है । वह प्रमाण है । ( प्रमाण-पद समाप्त) । www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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