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टिप्पण
सूत्र ५०६
१. (सूत्र ५०६)
भाव का शब्दार्थ है होना इसका तात्पयार्थ है— वस्तु का परिणाम अथवा परिणमन । जिससे वस्तु का मान किया जाता है वह है - प्रमाण । भाव से वस्तु की प्रमिति की जाती है इसलिए भाव को प्रमाण कहा गया है ।
गुण प्रमाण
द्रव्य की प्रमिति गुण से होती है इसलिए गुण को प्रमाण कहा जाता है। तीन नाम के सूत्र '२५५' में गुण और पर्याय का पृथक् उल्लेख है । प्रस्तुत सूत्र में पर्याय का उल्लेख नहीं है। आगम युग में द्रव्य और पर्याय ये दो नाम ही उपलब्ध हैं । द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय के ये दो विभाग हैं। गुणार्थिक जैसा कोई विभाग नहीं है।
नय प्रमाण
दार्शनिक युग में नय को प्रमाणांश माना गया। इस अवधारणा के अनुसार सकलादेश प्रमाण होता है। नय विकलादेश है। इसलिए वह प्रमाण नहीं प्रमाणांश है । अनुयोगद्वार का प्रतिपादन प्रमाण और प्रमाणांश व्यवस्था से पूर्ववर्ती है इसलिए यहां नय प्रमाण रूप में स्वीकृत है ।
संख्या प्रमाण
संख्या प्रमाण का हेतु है इसलिए इसे प्रमाण की कोटि में रखा गया है ।"
५०७ से ५५३ ।
५५४ से ५५७ ।
१. गुण प्रमाण के लिए द्रष्टव्य सूत्र
२. नय प्रमाण के लिए द्रष्टव्य सूत्र
३. संख्या प्रमाण के लिए द्रष्टव्य सूत्र ५५८ से ६०४ ।
सूत्र ५१५-५५१
२. (सूत्र ५१५ - ५५१)
आर्यरक्षित ने ज्ञानगुण प्रमाण के चार प्रकार बतलाए हैं। प्राचीन आगम साहित्य में प्रमाण का कोई वर्गीकरण नहीं है । नंदी में प्रमाण का वर्गीकरण उपलब्ध है, किन्तु वह अनुयोगद्वार से उत्तरकालीन है। आगम युग में पञ्चविध ज्ञान को ही प्रमाण माना जाता था । अनेकान्त और स्याद्वाद के लिए नयवाद का प्रयोग होता था। दार्शनिक युग में प्रमाण व्यवस्था की अपेक्षा अनुभव हुई । इस अपेक्षा की पूर्ति के लिए उमास्वाति ने ज्ञान और प्रमाण को पृथक् रूप में प्रतिष्ठित किया। तथा प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो विभाग बतलाए । सिद्धसेन ने भी प्रत्यक्ष और परोक्ष इस विभाग परम्परा का अनुकरण किया है। इनके अनुसार अनुमान और आगम परोक्ष प्रमाण के ही भेद हैं । नंदी सूत्र में प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो विभाग मिलते हैं ।" दार्शनिक युग में इस विभागद्वय का ही अनुसरण हुआ है। दर्शनयुग के आचार्यों ने अनुमान को परोक्ष के अन्तर्गत माना है। उपमान को प्रत्यभिज्ञा से स्वतंत्र स्वीकार नहीं किया तथा उपमान प्रमाण का निरसन भी किया है। प्रमाण चतुष्टयी पर पण्डित सुखलाल सिंघवी व दलसुखभाई मालवणिया ने विस्तार से विचार किया है ।"
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आरक्षित ने अनुयोगद्वार में न्यायदर्शन सम्मत प्रमाण चतुष्टयी को स्थान दिया है किन्तु उसका स्वरूप न्यायदर्शन से सर्वथा भिन्न है । देखें यंत्र -
१. अहावू. पृ. ९९ : नीतयो नया: अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशपरिच्तियः तद्विषया वा ते एवं प्रमाणं प्रमाणं ।
,
२. ही संख्या [सेच प्रमाणहेतुत्वात्संवेदनापेक्षया स्वतस्तदात्मकत्वाच्च प्रमाणं संख्याप्रमाणं ।
३. तसू. १।१०।
४. न्या. ४ ।
५. नसुनं. ४ ।
२. (क) प्रमी. (भाटि) पू. १९
(ख) आयुर्ज. १३६ - १६५।
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