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________________ प्र० १२,०६१६, ०५ ३४६ बादर द्रव्य पुद्गलपरावर्तन :- जिसने समय में एक जीव समस्त परमाणुओं को अपने औदारिक, वैयि तेजस, भाषा, आनापान, मन और कार्मण शरीर रूप परिणमा कर उन्हें भोग कर छोड़ देता है उसे बादर द्रव्य पुद्गलपरावर्तन कहते हैं। यहां आहारक शरीर को छोड़ दिया है, क्योंकि आहारक शरीर एक जीव के अधिक से अधिक चार बार ही हो सकता है । अतः वह पुद्गल परावर्तन के लिए उपयोगी नहीं है। सूक्ष्म द्रव्य पुदगलपरावर्तन :- जितने समय में एक जीव समस्त परमाणुओं को औदारिक आदि सात वर्गणाओं में से किसी एक वर्गणा रूप परिणमा कर उन्हें ग्रहण करके छोड़ देता है, उतने समय को सूक्ष्म द्रव्य पुद्गपरावर्तन कहते हैं। बादर द्रव्य पुद्गलपरावर्तन में तो समस्त परमाणुओं को सात रूप से भोगकर छोड़ देता है और सूक्ष्म में उन्हें केवल किसी एक रूप से ग्रहण करके छोड़ देता है। यहां इतना विशेष जानना चाहिए कि यदि समस्त परमाणुओं को एक औदारिक शरीर रूप परिणमाते समय मध्य-मध्य में कुछ परमाणुओं को वैक्रिय आदि शरीर रूप ग्रहण करके छोड़ दे या समस्त परमाणुओं को वैक्रिय शरीर परिणमाते समय मध्य-मध्य में कुछ परमाणुओं को औदारिक आदि शरीर रूप से ग्रहण करके छोड़ दे तो वे गणना में नहीं लिए जाते । जिस शरीर का परिणमन चालू है, उसी शरीर रूप से जो पुद्गल परमाणु ग्रहण करके छोड़े जाते हैं, उन्हीं का सूक्ष्म में ग्रहण किया जाता है । बादर क्षेत्र पुद्गलपरावर्तन :- कोई एक जीव भ्रमण करता करता आकाश के किसी एक प्रदेश में मरा। वही जीव पुनः आकाश के किसी दूसरे प्रदेश में मरा, फिर तीसरे में मरा। इस प्रकार जब वह लोकाकाश के समस्त प्रदेशों में मर चुकता है तो उतने काल को बादर क्षेत्र पुगनपरावर्तन कहते हैं। सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गलपरावर्तन :कोई जीव भ्रमण करता-करता आकाश के किसी एक प्रदेश में मरण करके पुनः उस प्रदेश के समीपवर्ती दूसरे प्रदेश में मरण करता है। पुनः उसके निकटवर्ती तीसरे प्रदेश में मरण करता है। इस प्रकार अनन्तर - अनन्तर प्रदेश में मरण करते-करते जब समस्त लोकाकाश के प्रदेशों में मरण कर लेता है तब सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गलपरावर्तन होता है । इन दोनों क्षेत्र पुद्गलपरावर्तनों में केवल इतना ही अन्तर है कि बादर में तो क्रम का विचार नहीं किया जाता । उसमें व्यवहित प्रदेश में मरण करने पर भी यदि वह प्रदेश पूर्वस्पृष्ट नहीं है तो उसका ग्रहण होता है। वहां क्रम से या बिना क्रम से समस्त प्रदेशों में मरण कर लेना ही पर्याप्त समझा जाता है । किन्तु सूक्ष्म में समस्त प्रदेशों में क्रम से ही मरण करना चाहिए । अक्रम से जिन प्रदेशों में मरण करता है उनकी गणना नहीं की जाती। इससे स्पष्ट है कि पहले से दूसरे में समय अधिक लगता है । बादर काल पुद्गलपरावर्तन :- जितने समय में एक जीव अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के सभी समयों में क्रम या बिना क्रम के मरण कर चुकता है, उतने काल को बादर काल पुद्गलपरावर्तन कहते हैं । सूक्ष्म काल पुद्गलपरावर्तन :- कोई एक जीव किसी विवक्षित अवसर्पिणी काल के पहले समय में मरा, पुनः उसके दूसरे समय में मरा, पुन: तीसरे समय में मरा; इस प्रकार क्रमवार अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के सब समयों में जब मरण कर चुकता है तो उसे सूक्ष्म काल पुद्गलपरावर्तन कहते हैं। यहां भी समयों की गणना क्षेत्र की तरह क्रमवार ही की जाती है, व्यवहित की गणना नहीं की जाती । आशय यह है कि कोई जीव अवसर्पिणी के प्रथम समय में मरा, उसके बाद एक समय कम बीस कोटी कोटी सागर के बीत जाने पर जब पुनः अवसर्पिणी काल प्रारम्भ हो उस समय यदि वह जीव उसके दूसरे समय में मरे तो वह द्वितीय समय गणना में लिया जाता है । मध्य के शेष समयों में उसकी मृत्यु होने पर भी वे गणना में नहीं लिए जाते । किन्तु यदि वह जीव उक्त अवसर्पिणी के द्वितीय समय में मरण को प्राप्त न हो किन्तु अन्य समय में मरण करे तो उसका भी ग्रहण नहीं किया जाता है। अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के बीतने पर भी जब कभी अवसर्पिणी के दूसरे समय में ही मरता है तब उस समय का ग्रहण किया जाता है। इस प्रकार तीसरे, चौथे आदि समयों में मरण करके जितने समय में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के समस्त समयों में मरण कर चुकता है उस काल को सूक्ष्म काल पुद्गलपरावर्तन कहते हैं। बादर भाव पुद्गलपरावर्तन :-तरतमभेद को लिए हुए अनुभाग बन्ध स्थान असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों की संख्या के बराबर हैं। उन अनुभाग बन्ध स्थानों में से एक-एक अनुभाग बन्ध स्थान में क्रम से या अक्रम से मरण करते करते जीव जितने समय में समस्त अनुभाग बन्ध स्थानों में मरण कर चुकता है उतने समय को बादर भाव पुद्गलपरावर्तन कहते हैं । सूक्ष्म भाव पुद्गलपरावर्तन: - सबसे जघन्य अनुभाग बन्ध स्थान में वर्तमान कोई जीव मरा। उसके बाद उस स्थान के अनन्तरवर्ती दूसरे अनुभाग बन्ध स्थान में वह जीव मरा। उसके बाद उस स्थान के अनन्तरवर्ती तीसरे अनुभाग बन्ध स्थान में मरा। इस प्रकार क्रम से जब समस्त अनुभाग बन्ध स्थानों में मरण कर लेता है तो सूक्ष्म भाव पुद्गलपरावर्तन कहलाता है। यहां पर भी कोई जीव सबसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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