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अणुओगदाराई
जघन्य अनुभाग बन्ध स्थान में मरण करके उसके बाद अनन्तकाल बीत जाने पर भी जब प्रथम अनुभाग स्थान के अनन्तरवर्ती दूसरे अनुभाग बन्ध स्थान में मरण करता है तभी वह मरण गणना में लिया जाता है किन्तु अक्रम से होने वाले अनन्तानन्त मरण भी गणना में नहीं लिए जाते। इसी तरह कालान्तर में द्वितीय अनुभाग बन्ध स्थान के अनन्तरवर्ती तीसरे अनुभाग बन्धस्थान में जब मरण करता है, तो वह मरण गणना में लिया जाता है। दिगम्बर साहित्य में
दिगम्बर साहित्य में ये परावर्त पञ्चपरिवर्तन के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनके नाम क्रमशः द्रव्यपरिवर्तन, क्षेत्रपरिवर्तन, कालपरिवर्तन, भवपरिवर्तन और भावपरिवर्तन हैं । द्रव्यपरिवर्तन के दो भेद हैं---
१. नोकर्मद्रव्य परिवर्तन । २. कर्मद्रव्य परिवर्तन ।
नोकर्मद्रव्य परिवर्तन :-एक जीव ने तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों को एक समय में ग्रहण किया और दूसरे आदि समयों में उनकी निर्जरा कर दी । उसके बाद अनन्त बार अगृहीत पुद्गलों को ग्रहण करके, अनन्त बार मिश्र पुद्गलों को ग्रहण करके और अनन्त बार गृहीत पुद्गल को ग्रहण करके छोड़ दिया। इस प्रकार वे ही पुद्गल जो एक समय में ग्रहण किये थे उन्हीं भावों से उतने ही रूप, रस, गन्ध और स्पर्श को लेकर जब उसी जीव के द्वारा पुनः नोकर्म-रूप से ग्रहण किए जाते हैं तो उतने काल के परिमाण को नोकर्मद्रव्य परिवर्तन कहते हैं।
कर्मद्रव्य परिवर्तन :-एक जीव ने एक समय में आठ प्रकार के कर्मरूप होने के योग्य कुछ पुद्गल ग्रहण किये और एक समय अधिक एक आवली के बाद उनकी निर्जरा कर दी। पूर्वोक्त क्रम से वे ही पुद्गल उसी प्रकार से जब उसी जीव के द्वारा ग्रहण किए जाते हैं तो उतने काल को कर्मद्रव्य परिवर्तन कहते हैं। नोकर्मद्रव्य परिवर्तन और कर्मद्रव्य परिवर्तन को मिलाकर एक द्रव्य परिवर्तन या पुद्गलपरिवर्तन होता है। और दोनों में से एक को अर्द्धपुद्गलपरिवर्तन कहते हैं।
क्षेत्र परिवर्तन :-सब से जघन्य अवगाहना का धारक सूक्ष्म निगोदिया जीव लोक के आठ मध्य प्रदेशों को अपने शरीर के मध्य प्रदेश बनाकर उत्पन्न हुआ और मर गया । वही जीव उसी अवगाहना को लेकर वहां दुबारा उत्पन्न हुआ और मर गया । इस प्रकार घनांगुल के असंख्यातवें भाग क्षेत्र में जितने प्रदेश होते हैं, उतनी बार उसी अवगाहना को लेकर वहां उत्पन्न हुआ और मर गया। उसके बाद एक-एक प्रदेश बढ़ाते-बढ़ाते जब समस्त लोकाकाश के प्रदेशों को अपना जन्मक्षेत्र बना लेता है तो उतने काल को एक क्षेत्र परिवर्तन कहते हैं।
काल परिवर्तन :-एक जीव उत्सर्पिणी काल के प्रथम समय में उत्पन्न हुआ और आयु पूरी करके मर गया। वही जीव दूसरी उत्सपिणी के दूसरे समय में उत्पन्न हुआ और आयु पूरी हो जाने के बाद मर गया । वही जीव तीसरी उत्सर्पिणी के तीसरे समय में उत्पन्न हुआ और उसी तरह मर गया। इस प्रकार वह उत्सर्पिणी काल के समस्त समयों में उत्पन्न हुआ और इसी प्रकार अवसर्पिणी काल के समस्त समयों में उत्पन्न हुआ। उत्पत्ति की तरह मृत्यु का भी क्रम पूरा किया । अर्थात् पहली उत्सर्पिणी के प्रथम समय में मरा, दूसरी उत्सपिणी के दूसरे समय में मरा । इसी तरह पहली अवसर्पिणी के पहले समय में मरा, दूसरी अवसर्पिणी के दूसरे समय में मरा । इस प्रकार जितने समय में उत्सपिणी और अवसर्पिणी काल के समस्त समयों को अपने जन्म और मृत्यु से स्पृष्ट कर लेता है, उतने समय का नाम काल परिवर्तन है।
भव परिवर्तन :-नरक गति में सबसे जघन्य आयु दस हजार वर्ष है। कोई जीव उतनी आयु को लेकर नरक में उत्पन्न हुआ । मरने के बाद नरक से निकलकर पुनः उसी आयु को लेकर दूसरी बार नरक में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार दस हजार वर्ष में जितने समय होते हैं उतनी बार उसी आयू को लेकर नरक में उत्पन्न हुआ। उसके बाद एक समय अधिक दस हजार वर्ष की आयु लेकर नरक में उत्पन्न हुआ, फिर दो समय अधिक दस हजार वर्ष की आयु लेकर नरक में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार एक-एक समय बढ़ाते-बढ़ाते नरक गति की उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर पूर्ण की । उसके बाद तिर्यक् गति को लिया । तिर्यक् गति में अन्तर्मुहुर्त की आयु लेकर उत्पन्न हुआ और मर गया। उसके बाद उसी आयु को लेकर पुनः तिर्यग् गति में उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार अन्तर्मुहूर्त में जितने समय होते हैं उतनी बार अन्तर्मुहूर्त की आयु लेकर उत्पन्न हुआ, उसके बाद पूर्वोक्त प्रकार से एक-एक समय बढ़ाते-बढ़ाते तिर्यग् गति की उत्कृष्ट आयु तीन पल्य पूरी की। तिर्यग्गति की ही तरह मनुष्यगति का काल पूरा किया और नरक गति की तरह देवगति का काल पूरा किया। देवगति में केवल इतना अन्तर है कि ३१ सागर की आयु पूरी करने पर ही भव परिवर्तन पूरा हो
१. कनं. ५, पृ. २७२-२८१।
२. ससि. २।१०।
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