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प्र० १२, सू० ६१७ टि०५,६
जाता है । क्योंकि ३१ सागर से अधिक आयु वाले देव नियम से सम्यग्दृष्टि होते हैं और वे एक या दो मनुष्य भव धारण करके मोक्ष चले जाते हैं । इस प्रकार चारों गति की आयु को भोगने में जितना काल लगता है उसे भव परिवर्तन कहते हैं।
भाव परिवर्तन :-कर्मों की एक-एक स्थिति बन्ध के कारण असंख्यात लोक प्रमाण कषायाध्यवसाय स्थान हैं। और एकएक कषाय स्थान के कारण असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागाध्यवसाय स्थान हैं। किसी पञ्चेन्द्रिय संशी पर्याप्तक मिथ्यादष्टि जीव ने ज्ञानावरण कर्म का अन्तः कोटी-कोटी सागर प्रमाण जघन्य स्थिति बन्ध किया। उसके उस समय सबसे जघन्य कषाय स्थान और सबसे जघन्य अनुभाग स्थान तथा सबसे जघन्य योग स्थान था। दूसरे समय में वही स्थितिबन्ध, वही कषाय स्थान और वही अनुभाग स्थान रहा किन्तु योग स्थान दूसरे नम्बर का हो गया। इस प्रकार उसी स्थितिबन्ध, कषाय स्थान तथा अनुभाग स्थान के साथ श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण समस्त योग स्थान को पूर्ण किया। योग स्थानों की समाप्ति के बाद स्थिति बन्ध और कषाय स्थान तो वही रहा किन्तु अनुभाग स्थान दूसरा बदल गया । उसके भी पूर्ववत् समस्त योगस्थान पूर्ण किये । इस प्रकार अनूभागाध्यवसाय स्थानों के समाप्त होने पर उसी स्थिति बन्ध के साथ दूसरा कषायस्थान हुआ। उसके भी अनुभाग स्थान और योगस्थान पूर्ववत् समाप्त किये । पुनः तीसरा कषायस्थान हुआ। उसके भी अनुभागस्थान और योग स्थान पूर्ववत् समाप्त किये । इस प्रकार समस्त कषायस्थानों के समाप्त हो जाने पर उस जीव ने एक समय अधिक अन्तः कोटी-कोटी सागर प्रमाण स्थितिबन्ध किया। उसके भी कषाय स्थान, अनुभाग स्थान और योगस्थान पूर्ववत् पूर्ण किये। इस प्रकार एक-एक समय बढ़ाते-बढ़ाते ज्ञानावरण की तीस कोटी-कोटी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति पूरी की।
इस तरह जब वह जीव सभी मूल प्रकृतियों और उत्तर प्रकृतियों की स्थिति पूरी कर लेता है तब उतने काल को भाव परिवर्तन कहते हैं।
इन सभी परिवर्तनों में क्रम का ध्यान रखा गया है । अक्रम से जो क्रिया होती है वह गणना में नहीं ली जाती। अर्थात् सूक्ष्म पुद्गलपरिवर्तनों में जो व्यवस्था है वही व्यवस्था यहां भी समझनी चाहिए।'
सूत्र ६१७ ६. (सूत्र ६१७)
लोक द्रव्यमय-पञ्चास्तिकायमय है। पञ्चास्तिकाय का एक भाग है जीवास्तिकाय । जीवास्तिकाय का एक भाग है जीव । प्रत्येक जीव में भाव होता है । भाव का हेतु है कर्मप्रकृति । कर्म का मुख्य स्रोत है मोह। मोह का हेतु है राग। राग का हेतु है लोभ । लोभ का हेतु है माया। माया का हेतु है मान । मान का हेतु क्रोध है । जब हम व्यापक से व्याप्य की ओर चलते हैं तब पञ्चास्तिकाय से क्रोध तक जाते हैं। जब हम व्याप्य से व्यापक की ओर जाते हैं तो क्रोध से पञ्चास्तिकाय तक आ जाते हैं। भाव समवतार की प्रक्रिया में विश्व को अन्तर और बाह्य दोनों रूप में समझने का अवसर मिलता है।
१.कग्रं ५, पृ. २८१-२८४ ।
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