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प्र० ११, सू० ५१५-५५१, टि० २ तीसरा वर्गीकरण
१. आत्मागम २. अनन्तरागम ३. परम्परागम । शब्द विमर्श
सूत्र ५४२ ___ सर्वसाधर्म्य-अर्हत् ने अर्हत् जैसा कार्य किया। तीर्थ प्रवर्तन आदि उत्कृष्टतम कार्य अर्हत् ही कर सकते हैं, अन्य कोई नहीं कर सकते। इसलिए अर्हत् को अर्हत् से ही उपमित किया जाता है।'
सूत्र ५४४ शाबलेय-चितकबरी गाय का बछड़ा।' बाहुलेय-काली गाय का बछडा ।'
सूत्र ५४५ प्रायःवैधर्म्य वायस-पायस-वायस 'कौवा' काला होता है, पायस 'खीर' सफेद होती है। वायस सचेतन है, पायस अचेतन है। इन दोनों में अनेक धर्मों की अपेक्षा से विसंवाद होने पर भी दोनों शब्दों में अक्षर-नामगत दो वर्णों की समानता है और अस्तित्व की दृष्टि से साम्य है अतः यह प्राय:वैधयं का दृष्टान्त है।'
सर्ववैधर्म्य-नीच ने नीच जैसा कार्य किया यह सर्वर्वधर्म्य का दृष्टान्त है पर इसमें प्रतीति सर्वसाधर्म्य को होती है। सर्ववैधर्म्य के उदाहरण में इसका प्रयोग विशेष अर्थव्यंजना का संकेत करता है। वह व्यंजना इस प्रकार है-नीच व्यक्ति जैसा महापाप नहीं कर सकता वैसा इसने किया है। अथवा अतीत में किसी नीच ने जैसा कार्य नहीं किया वैसा इसने किया है। अब तक हुई सभी प्रवृत्तियों से विलक्षण होने के कारण यह सर्ववैधर्म्य है। यहां वैधर्म्य का अर्थ वैलक्षण्य है।
सूत्र ५५० तदुभयागम-जिसमें सूत्र और व्याख्या दोनों एक साथ संकलित हो वह तदुभयागम है। आगमों में ऐसे अनेक स्थल प्राप्त हैं । निदर्शन रूप में 'आयार चूला' (१५।१४) का निम्न निर्दिष्ट पाठ प्रस्तुत किया जा सकता है
"तओ णं समणे भगवं महावीरे पंचधातिपरिवुडे" यह सूत्रागम है। इसकी व्याख्या यह है-तं जहा-खीरधाईए, मज्जणधाईए, मंडावणधाईए, अंकधाईए"सूत्र संक्षिप्त होता है। व्याख्या में उसका विस्तार होता है।
सूत्र ५५१ आत्मागम, अनन्तरागम, परम्परागम-गुरु के उपदेश बिना स्वतः प्राप्त आगम आत्मागम कहलाता है। तीर्थकर आगमों के अर्थ के उत्स हैं -अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । तीर्थंकर अर्थ का प्रतिपादन करते हैं। तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित अर्थागम को गणधर सूत्र में ग्रथित करते हैं इसलिए तीर्थंकरों के लिए अर्थागम आत्मागम है। गणधरों के लिए सूत्रागम आत्मागम है और अर्थागम अनन्तरागम है। अनन्तर अर्थात् अव्यवहित रूप से प्राप्त । गणधर तीर्थंकरों से बिना किसी व्यवधान के अर्थागम प्राप्त करते हैं। गणधरों के शिष्य सूत्रागम की प्राप्ति अव्यवहित रूप से करते हैं, अत: वह उनके अनन्तरागम और अर्थागम परम्परागम है। उनके बाद सब मुनियों के सूत्रागम और अर्थागम दोनों ही परम्परागम होते हैं।
१. अहावृ. पृ. १०२ : अहंता अर्हता सदृशं तीर्थप्रवर्तनादि
कृतमित्यादि स एव तेनोपमीयये। २. अमवृ. प. २०१ : शबलाया गोरपत्यं शाबलेयो। ३. वही, बाहुलाया अपत्यं बाहुलेयो।
४. (क) अचू. पृ. ७५ ।
(ख) अहाव. पृ.१०२ । (ग) अमवृ. प. २०१॥ ५. आनि. १९२।
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