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३. ( सूत्र ५५३ )
चारित्र गुण प्रमाण कर्मक्षय के लिए की जाने वाली चेष्टा का नाम है चारित्र ।"
सामायिक चारित्र -
वास्तव में चारित्र सामायिक ही है । कुछ विशिष्ट प्रयोग तथा विकास की विशिष्ट भूमिका के आधार पर चारित्र के पांच
प्रकार किए गए हैं।'
सूत्र ५५३
हरिभद्रसूरि ने चारित्र-विभाग के दो कारण बतलाए हैं--अर्थ व संज्ञाकरण
सामायिक चारित्र में सावद्य योग की विरति है । वह प्रथम व अन्तिम तीर्थंकर के समय अल्पकालिक (इत्वरिक) होता है। शेष तीर्थंकरों के समय जीवन पर्यन्त ( यावत्कथिक ) होता है।'
छेदोपस्थापनीय चारित्र
पूर्व पर्याय को छेदकर महाव्रतों में उपस्थापित करना छेदोपस्थापनीय चारित्र है।
परिहारविशुद्धि चारित्र -
परिहार-तप अथवा साधना का विशेष प्रयोग है । यह अठारह मास का प्रयोग है। इसे नौ साधु मिलकर करते हैं। प्रयोग की सम्पन्नता पर उनके सामने तीन विकल्प रहते हैं
१. पुनः परिहारविशुद्धि का स्वीकार । २. जिनकल्पता का स्वीकार । ३. गण में प्रवेश | "
स्थितकल्प के अनुसार यह प्रयोग पुरुषयुग (सुधर्मा और जम्बू) तक चला ।
४. ( सूत्र ५५४-५५७ )
नय
सूक्ष्मसम्पराय चारित्र -
सामायिक विकास की वह भूमिका है जहां लोभ का अंश शेष रहता है, सूक्ष्मसम्पराय चारित्र कहलाता है। श्रेणी का आरोहण करते समय विशुद्धमान और औपशमिक श्रेणी से अवरोहण करते समय यह संविश्यमान होता है।" यथाख्यात चारित्र — वीतराग चारित्र ।
अणुओगदराई
१. अहावृ. पृ. १०३ : चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चरित्रं क्षयोपशमरूपं तस्य भावश्चारित्रं, अशेषकर्मक्षपाय चेष्टा इत्यर्थः । २. वही, सर्वमप्येतदविशेषतः सामायिकमेव सत् छेदादिविशेषविशेष्यमाणमर्थतः संज्ञातश्च नानात्वं लभते ।
३. (क) अहावृ. पृ. १०३,१०४ : तत्र सावद्ययोगविरतिमात्रं सामायिकं तच्चेश्वरं यावत्कथितं च तत्र स्वल्पकालमिरवरं, तदाचचरमासीयोरेवानारोपितव्रतस्य शैक्षकस्य यावत्कथाssत्मनः तावत्कालं यावत्कथं, जावजीवमित्यर्थः यावत्कथमेव तम्मध्यमासीर्थेषु विदेहवासन पेति ।
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सूत्र ५५४-५५७
नय प्रमाण - अनन्तधर्मात्मक वस्तु के एक धर्म को ग्रहण करने वाले और अन्य धर्मों का निराकरण न करने वाले ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहा जाता है । द्रव्य में जितने धर्म, चिन्तन और अभिव्यक्ति के जितने प्रकार हैं उतने ही नय हैं। चिन्तन के विषयभूत धर्म अनन्त हैं अतः नय भी अनन्त हैं। मुख्य वर्गीकरण की अपेक्षा वे द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दो वर्गों में समाहित हो जाते हैं। अभेद को प्रधानता देनेवाला नय द्रव्यार्थिक और भेद को प्रधानता देने वाला नय पर्यायार्थिक कहलाता है । द्रव्यार्थिक जय के तीन भेद है
१ नंगम २ संग्रह ३. व्यवहार ।
,
(ख) अमवृ. प. २०५ ।
४. महा. पृ. १०४ पूर्वपर्यावस्थ छेदो महाव्रतेषु चोपस्थापनमात्मनः तच्छेदोपस्थापनमुच्यते ।
५. वही, कल्पपरिसमाप्तीच यी गतिरेषा भूपस्तमेव कल्पं प्रतिपद्येरन् जिनकल्पं वा गणं वा प्रतिगच्छेयुः ।
६. वही, स्थितकल्पे चैते पुरुषयुगद्वयं भवेयुनेंतरत्रेति । ७. अहावृ. पृ. १०४, १०५ ।
८. प्रन. ७।११
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