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अणुओगदाराई
सूत्र ३१९ ४. (सूत्र ३१६) वस्तु की पहचान के लिए नामकरण आवश्यक है । प्रस्तुत सूत्र में नामकरण के आधारों का निर्देश किया गया है।
सूत्र ३२१ ५. नोगौण (नोगोण्णे)
अयथार्थ नाम या गुणशून्य नाम नोगोण्ण नाम कहा जाता है१. कुन्त-भाला। २. मुद्ग जलवायस, मूंग नामक अन्न, वनमूंग, मोठ, छोटी पेटी। ३. मुद्रा-मर्यादा, अंगूठी, अवयवों की विशेष रचना । ४. लाला-लार। ५. कुलिका-सकुलिका का प्रयोग प्राकृत में होता है । संस्कृत में इसका समानार्थक शब्द शकुनिका है। कुलिया का अर्थ __ है कुड्या-भीत। ६. माई-इसके माता, देवी, माया, भूमि, विभूति आदि अनेक अर्थ होते हैं। ७. इन्द्रगोप–'वीरवधूटी' नाम का कीड़ा जो वर्षा के दिनों में उत्पन्न होता है। सकुंत, समुद्ग, समुद्र, पलाल आदि शब्द उपर्युक्त अर्थों से हीन होने के कारण 'नोगोण्ण' के उदाहरण हैं ।
सूत्र ३२३ ६. प्रतिपक्षपद से होने वाला नाम (पडिवखपएणं)
प्रतिपक्ष के आधार पर किया जाने वाला नाम । जैसे-असिवा (सियारिन) को सिवा कहना ।
ग्राम आदि की रचना के समय अमंगल शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाता। अशिवा शब्द अमांगलिक है। किसी प्रयोजनवश सियारिन का नाम लेना आवश्यक हो तो उसे अशिवा नहीं किन्तु शिवा कहा जाता है। वृत्तिकार के इस कथन से यह प्रतीत होता है कि सियारिन के लिए 'शिवा' शब्द का प्रयोग किसी विशेष परिस्थिति में किया जाता था। बाद में वह उस अर्थ में रूढ हो गया। अशिवा होने पर भी उसका नाम शिवा है इसलिए यह प्रतिपक्ष निष्पन्न नाम है।'
अग्नि को शीतल और विष को मधुर किस भाषा में कहा जाता है यह अनुसन्धेय है जैसे कि गुजराती में 'नमक' को 'मीठु' कहते हैं। . यद्यपि मदिरा अम्ल होती है फिर भी उसको अम्ल नहीं कहा जाता। ऐसा माना जाता है कि उसको कलाल के घरों में अम्ल कहने से वह विकृत हो जाती है इसलिए उसे वहां स्वादु कहा जाता है।'
तमिल में शोणित का नाम 'अरत्तम' है । इस आधार पर प्रस्तुत वाक्यांश का अनुवाद इस प्रकार किया जा सकता है - जो रक्त है उसका नाम अरक्त है। संभव है कि सूत्रकार ने प्रस्तुत निदर्शन में संस्कृत के रक्त शब्द से बने लत्त और तमिल के अरत्त से बने अलत्त शब्द का प्रयोग किया हो।
'लातीति लाबू' निरुक्त के अनुसार लाबू होने पर भी तुम्बा अलाबु कहलाता है।'
१. (क) अहाव. पृ. ७१,७२: प्रामाकरनगरखेटकर्बटमडम्ब
द्रोणमुखपत्तनाश्रमसंबाधसन्निवेशेषु निवेश्यमानेषु सत्सु
अमांगलिकशब्दपरिहारार्थ असिवा सिवेत्युच्यते । (ख) अमव. प. १३०, १३१ । २. (क) अहाव. पृ. ७२ : अग्नि: शीतला विषं मधुरकं,
कलालगृहेषु अम्लं स्वादु मृष्टं न त्वम्लमेव सुरा
संरक्षणायानिष्टशब्दपरिहारः। (ख) अमव. प. १३१।
३. (क) अहाव. पृ. २ : जो रक्तो लाक्षारसेन स एवारक्तः
प्राकृतशैल्या अलक्तः । (ख) अमवृ. प. १३१ । ४. (क) अहावपृ. ७२ : लाबु 'ला आदान' इति कृत्वा
आदानार्थवत् सेत्ति तदलाबुः । (ख) अमवृ. प. १३१: लाति आदत्त, धरति, प्रक्षिप्तं
जलादिवस्तु इति निरुक्तेर्लाबु तदेव अलाबु तुम्बकमभिधीयते ।
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