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________________ प्र० ८, सू० ३०६-३१८, टि० ३ २०६ उत्पत्ति अनुयोगद्वार के अनुसार काव्यरसों के आलम्बन और उद्दीपक विभाव तथा लक्षण इस प्रकार हैंरस लक्षण वीर परित्याग, तपश्चरण, शत्रुविनाश अपश्चात्ताप, धैर्य, पराक्रम शृंगार रति, संयोग की अभिलाषा विभूषा, विलास, कामचेष्टा, हास्य, लीला और रमण अद्भुत अपूर्व और अनुभूतपूर्व वस्तु हर्ष और विवाद भयंकर भयंकर रूप आदि, अंधकार, चिन्ता और भयंकर कथा संमोह, संभ्रम, विषाद और मरण ब्रीडनक गुह्य और गुरुस्त्री की मर्यादा का अतिक्रमण लज्जा, शंका बीभत्स अशुचि पदार्थ, शव, अनिष्ट दृश्य और दुर्गन्ध निर्वेद और जीव हिंसा के प्रति होने वाली घृणा हास्य रूप, वय, वेश और भाषा आदि का विपर्यय मुख, नेत्र का विकास करुण प्रिय-वियोग, वध, बंध, विनिपात, व्याधि और संभ्रम शोक, विलाप, म्लान और रोदन शान्त एकाग्रता और प्रशान्त भाव अविकार शृंगार रस के उदाहरण में मेखलादाम (करधनी) के विशेषणों में एक विशेषण है-मधुर । करधनी में प्रियता या सुन्दरता हो सकती है किन्तु माधुर्य कैसे हो सकता है ? यहां माधुर्य का सम्बन्ध शब्दायमान घुघरूओं के स्वरों की मधुरता से है। अद्भुत रस की उत्पत्ति विस्मयकारी वस्तुओं से होती है । वे वस्तुएं अपूर्व (जिनका पहले अनुभव न किया गया हो) भी हो सकती हैं और अनुभूतपूर्व भी। कभी नहीं देखी हुई वस्तु देखने से आश्चर्य होता है वैसे ही एक दो बार देखी हुई वस्तु भी विस्मय का हेतु बन सकती है, इसलिये अपूर्व और अनुभूतपूर्व दोनों स्थितियों में अद्भुत रस की उत्पत्ति स्वीकृत की गई है। लज्जा, शंका, सिर झुकाना, शरीर संकुचित होना आदि लज्जा के लक्षण हैं। मुझे कहीं कोई कुछ कह न दे, सब जगह ऐसी आशंका रखना शंका है। लज्जा रस के सन्दर्भ में अनुयोगद्वार में एक प्राचीन परम्परा का उल्लेख है। विवाह के बाद प्रथम बार शोणित से सना हुआ वधू का अधोवस्त्र गुरुजनों के सामने ले जाया जाता है, वे उसे सतीत्व की कसौटी मानकर नमस्कार करते थे।' बत्तीस दोष सूत्र ३१८ की व्याख्या में बत्तीस दोषों का विवरण प्राप्त नहीं है । सूत्रस्पर्शिक-नियुक्ति-अनुगम के प्रकरण में (सू. ७१४) आवश्यक नियुक्ति में उनकी चर्चा की गयी है-वे इस प्रकार हैं१. असत्य प्रतिपादन १७ स्वसिद्धान्त में अनुपदिष्ट २. हिंसाकारक प्रतिपादन १५. अपद किसी अन्य छन्द के अधिकार में अन्य छन्द का कथन ३. अर्थशून्य केवल शाब्दिक संरचना १९. स्वभाव हीन ४. असंबद्ध प्रतिपादन २०. व्यवहित ५. छलयुक्त प्रतिपादन २१. काल-दोष --काल का व्यत्यय ६. द्रोहपूर्ण उपदेश २२. यति-दोष-अस्थान में विराम ७. निस्सारता २३. छवि-दोष-अलंकार शून्यता ८. आवश्यकता से अधिक अक्षर और पद २४. समयविरुद्ध स्वसिद्धान्त के विरुद्ध ९. अपेक्षित अक्षरों और पदों से हीन २५. वचनमात्र-निर्हेतुक १०. पुनरुक्ति २६. अर्थापत्ति दोष ११. व्याहत पूर्वापर विरोध २७. असमास दोष १२. युक्ति-शून्यता २८. उपमा दोष १३. व्युत्क्रम २९. रूपक दोष १४. वचन-व्यत्यय ३०. निर्देश दोष १५. विभक्ति-व्यत्यय ३१. पदार्थ दोष १६. लिंग-व्यत्यय ३२. सन्धि दोष । बत्तीस दोषों के विस्तृत विवेचन हेतु देखें-बृहत्कल्पभाष्य भाग प्रथम, गाथा २७८ से २८१ की वृत्ति । १. (क) अचू. पृ. ४८ । (ग) अमवृ. प. १२७ । (ख) अहावृ. पृ. ७०। २. आनि. ९८१-८८४ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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