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अणुओगदाराई रात्रि, पति के बिना स्त्री और त्याग के बिना लक्ष्मी सुशोभित नहीं होती, जिस प्रकार अच्छी तरह पकाया हुआ होने पर भी नमक रहित भोजन स्वादिष्ट नहीं होता वैसे ही रस-रहित काव्य अनास्वाद्य होता है।
___ आगे चलकर रसों की संख्या में विस्तार हुआ। पूर्वोक्त नौ रसों में वात्सल्य और भक्ति रस की गणना करने से काव्य परम्परा में ग्यारह रस हो गए। प्रस्तुत आगम में नौ रसों की परम्परा स्वीकृत है, किन्तु आधुनिक काव्यानुशासन की परम्परा से वह कुछ भिन्न है, जैसे --वीर, शृंगार, अद्भुत, रौद्र, ब्रीडनक, बीभत्स, हास्य, करुण और प्रशान्त ।
इन रसों में क्रम-व्यत्यय के साथ एक रस की मान्यता का भी अन्तर है। काव्य शास्त्रों में जो नौ रस हैं उनमें भयानक नामक रस है । प्रस्तुत आगम में भयानक रस नहीं है । इस पर टिप्पण करते हुए वृत्तिकार ने लिखा है-भयानक रस का अन्तर्भाव रौद्र रस में हो जाता है अतः उसका पृथक् ग्रहण नहीं किया।'
नौ रसों के क्रम में भयानक के स्थान पर ब्रीडनक (लज्जा) रस का नाम है। काव्यशास्त्र के किसी भी ग्रन्थ में लज्जा रस की स्वीकृति नहीं मिली है। इस स्थिति में यह विषय आलोच्य है कि अनुयोगद्वार में लज्जा रस का उल्लेख किस आधार पर किया गया है तथा अन्य ग्रन्थकारों ने इसे इस रूप में स्वीकार क्यों नहीं किया ?
भाव तीन प्रकार के होते हैं स्थायी भाव, सात्विक भाव और संचारी भाव । रसों की उत्पत्ति, अनुभूति और अभिव्यक्ति में भाव, विभाव, अनुभाव आदि का महत्त्वपूर्ण स्थान है । इस दृष्टि से इन सबकी सूचना चार्ट के माध्यम से दी जा रही है - रस स्थायीभाव संचारीभाव
विभाव
अनुभाव १. शृंगार रति जुगुप्सा, आलस्य आदि ऋतु, माला, आभूषण आदि मुस्कराहट, मधुरवचन, कटाक्ष आदि २. हास्य हास लज्जा, निद्रा, असूया आदि विकृत आकृति, वाणी, वेश आदि स्मित, हास आदि ३. करुण शोक निर्वेद, मोह, दीनता आदि इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग देवोपलम्भ, निःश्वास, स्वरभेद, आदि
अश्रुपात आदि ४. रौद्र उग्रता, मद, चपलता आदि असाधारण अपमान, कलह, नथुने फुलाना, होठ फड़फड़ाना, विवाद आदि
कनपटी फड़कना आदि ५. वीर उत्साह गर्व, धृति, असूया, अमर्ष प्रतिनायक का अविनय, शौर्य, धैर्य, दानशीलता, वागदर्प आदि आदि
त्याग आदि ६. भयानक भय त्रास, चिंता, आवेग आदि गुरु या राजा का अपराध, भयं- शरीर कंपन, घबराहट, औष्ठशोष,
कर रूप देखना, भयंकर शब्द कण्ठशोष आदि
सुनना आदि ७. बीभत्स जुगुप्सा अपस्मार, दैन्य, जड़ता घणास्पद तथा अरुचिकर वस्तु अंगसंकोच, थूकना, मुंह फेरना आदि का दर्शन आदि
आदि ८. अद्भुत विस्मय वितर्क, आवेग, औत्सुक्य दिव्य वस्तु का दर्शन, देवागमन, नेत्र विस्तार, निनिमेष दर्शन, आदि माया, इंद्रजाल आदि
भ्रूक्षेप, रोमाञ्च आदि ९. शांत शम धृति, हर्ष, निर्वेद आदि वैराग्य, संसारभय, तत्त्वज्ञान यम-नियम पालन, अध्यात्म-शास्त्र
आदि
चिंतन आदि १०. वत्सल वात्सल्य हर्ष, गर्व, उन्माद आदि शिशु-दर्शन आदि
स्नेहपूर्वक देखना, हंसना, गोद लेना
आदि ११. भक्ति ईश्वर विष- हर्ष, औत्सुक्य, निर्वेद, गर्व राम, कृष्ण, महावीर आदि नेत्र विकास, गद्गद् वाणी, रोमाञ्च यक प्रेम आदि
आदि
१. अमवृ. प. १२६ : ननु भयजनकरूपादिभ्यः समुत्पन्न: सम्मोहादिलिङ्गश्च भयानक एव भवति कयमस्य रौद्रत्वम् ? सत्यम्, किन्तु पिशाचादिरौद्रवस्तुभ्यो जातत्वाद् रौद्रत्वमस्य विवक्षितमित्यदोषः ।
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