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टिप्पण
सूत्र २९८-३०७ १. (सूत्र २६८-३०७)
स्वर प्रकरण के विशेष विवरण के लिए देखें-ठाणं ७।३९-४८ का टिप्पण । स्थानांग सूत्र में स्वर प्रकरण के क्रम में अक्षरसम के स्थान पर तन्त्रीसम है।
सूत्र ३०८ २. आमंत्रण में अष्टमी विभक्ति होती है (अट्ठमाऽऽमंतणी भवे)
वृद्ध वैयाकरण सम्बोधन के लिए अष्टमी विभक्ति स्वीकार करते हैं। नए वैयाकरण सम्बोधन में प्रयुक्त विभक्ति को प्रथमा विभक्ति मानते हैं।
चूर्णिकार ने लिखा है कि इन विभक्तियों का विस्तृत वर्णन शब्द-प्राभृत अथवा पूर्वं शास्त्रों से उद्धृत व्याकरणों से जानना चाहिए। किन्तु चर्णिकार ने उन व्याकरणों का नामोल्लेख नहीं किया। ऐसा प्रतीत होता है कि उनके सामने निर्दिष्ट ग्रन्थ विद्यमान थे। किन्तु वर्तमान में वे उपलब्ध नहीं हैं।
सूत्र ३०९-३१८ ३. (सूत्र ३०६-३१८)
कवि के कर्म, भाव या अभिप्राय का नाम काव्य है। जो रसित होते हैं-अन्तरात्मा के द्वारा अनुभूत होते हैं, वे सहकारी कारणों की सन्निधि से उद्भूत चैतसिक विकार रस कहलाते हैं।
विकार और रस में कुछ अन्तर भी है। बाहरी वस्तु के आलम्बन से जो मानसिक विकार होता है वह भाव कहलाता है। उस भाव का प्रकर्ष रस है।
रस की भांति रसनीय चित्तवृत्तियां भी रस कहलाती हैं, जैसे-सुख वेदनीय और दुःख वेदनीय कर्मों के रस होते हैं वैसे ही काव्य के रस होते हैं । यह चूणिकार व वृत्तिकार आचार्य हरिभद्र का अभिमत है।
कवि-साहित्य में रस का महत्त्वपूर्ण स्थान है। रस की उत्पत्ति विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों के संयोग से होती है । भरत-नाट्यशास्त्र में आठ रस स्वीकार किए गए हैं-शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स और अद्भुत ।
धनञ्जय ने उपर्युक्त आठ रसों के स्थायी भावों का नामोल्लेख करते हुए शान्त रस के स्थायी भाव की भी चर्चा की है, किन्तु उसने यह निर्देश भी किया है कि शान्त रस नाटक के लिए उपयोगी नहीं माना जाता।'
काव्यानुशासन में नौ रसों की मान्यता रही है। काव्य में रस का अत्यन्त महत्त्व रहा है जिस प्रकार चन्द्रमा के बिना १. (क) अहाव. पृ. ६८ : वृद्धवैयाकरणवर्शनमिदमिदं- ५. (क) अचू. पृ. ४७ : युगीनानां त्वियं प्रथमैव ।
मिउमहुररिभियसुभयरणोतिणिद्दोसभूसणाणुगतो। (ख) अमवृ. प. १२३ ।
सुहदुहकम्मसमा इव कम्म (न्व) स्स रसा भवंति तेणं । २. अचू. पृ. ४७ : वित्थरो सि सद्दपाहुडातो णायव्वो पुत्व
(ख) अहावृ. पृ. ६९। णिग्गतेसु वा वागरणादिसु । ३. अमव. प. १२४ : कवेरभिप्रायः काव्यं रस्यन्ते -अन्त
रत्युत्साहजुगुप्ताः क्रोधो हासः स्मयो भयं शोकः । रात्मनाऽनुभूयन्त इति रसाः, तत्सहकारिकारणसम्नि
शममपि केचित् प्राहुः पुष्टिर्नाट्येषु नैतस्य ॥ धानोद्भूताश्चेतोविकारविशेषा इत्यर्थः ।
७. का. २, पृ.८१। ४. वही, बाह्यायलम्बनो यस्तु विकारो मानसो भवेत् ।
स भावः कथ्यते सद्भिस्तस्योत्कर्षो रसः स्मृतः ।।
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