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________________ प्र० ११, सू० ५७५-५६५, टि० १०,११ ३२६ शलाका पल्य के बार-बार भर कर एवं खाली कर एक-एक दाने से प्रतिशलाका पल्य भरा जाता है। जब प्रतिशलाका पल्य शिखा सहित पूर्ण भर जाता है तब उसे आगे-आगे के द्वीप-समुद्रों में दाना डालकर खाली किया जाता है। परिणाम स्वरूप १ दाना महाशला का पल्य में डाला जाता है । प्रतिशलाका पल्य खाली करते समय अन्तिम द्वीप समुद्र के परिमाण वाला अनवस्थित पल्य बनाया जाता है । वह अनवस्थित पल्य और शलाका पल्य भरे रहते हैं। प्रतिशला का पल्य खाली करने के बाद उससे आगे के द्वीप-समुद्रों में शलाका पल्य खाली किया जाता है फिर उससे आगे अनवस्थित पल्य खाली किया जाता है। पुनः अनवस्थित पल्य से शलाका पल्य भरा जाता है और शलाका पल्य से प्रतिशलाका पल्य भरा जाता है। प्रतिशलाका पल्य को बार-बार भर कर एवं खाली कर एक-एक दाने से महाशलाका पल्य भरा जाता है। शिखा सहित महाशलाका पल्य भर जाने के बाद उसे भरा हुआ ही रखा जाता है। फिर पूर्व प्रक्रिया के अनुसार शलाका पल्य से प्रतिशलाका पल्य भरा जाता है और अनवस्थित पल्य से शलाका पल्य भरा जाता है । अनवस्थित पल्य को खाली करके शलाका पल्य को शिखा सहित भरने वाला अनवस्थित पल्य का जो अंतिम दाना था और वह जिस समुद्र या द्वीप में गिराया गया था उस (द्वीप या समुद्र) की लंबाई और चौड़ाई जितना अन्तिम अनवस्थित पल्य बनाया जाता है । उसे भी शिखा सहित पूर्ण भरा जाता है।' भरे हुए महाशलाका पल्य, प्रतिशलाका पल्य, शलाका पल्य और अनवस्थित पल्य के दानों को एकत्रित करके द्वीप और समुद्रों में जितने दाने डाले गए थे उन दानों को उसमें मिलाया जाता है। जितनी संख्या होती है उससे एक कम संख्या उत्कृष्ट संख्यात की संख्या होती है। सूत्र ५८७-५५९ ११. (सूत्र ५८७-५६५) असंख्यात असंख्यात परीत युक्त असंख्यात जघन्य मध्यम उत्कृष्ट जघन्य मध्यम उत्कृष्ट जघन्य मध्यम उत्कृष्ट असंख्यात के मुख्य तीन भेद हैं-(१) परीत-असंख्यात (२) युक्त-असंख्यात (३) असंख्यात-असंख्यात । इनके प्रत्येक के तीनतीन भेद किए गए हैं १. जघन्य २. मध्यम ३ उत्कृष्ट । इस प्रकार असंख्यात के नौ भेद हो जाते हैं। १. जघन्य परीत-असंख्यात --उत्कृष्ट संख्यात के मान में एक बढाने से जघन्य परीत-असंख्यात होता है। जघन्य परीत-असंख्यात-उत्कृष्ट संख्यात+१ पल्य भरेगा। इस प्रक्रिया में १०० बार शलाका पल्य भरना होगा, १० बार प्रतिशलाका पल्य भरना होगा। इसका चित्र इस प्रकार बन सकता है १. इस प्रक्रिया में कल्पना से महाशलाका पल्प १ बार भरा जाता है, प्रतिशलाका पल्य १० बार भरा जाता है, शलाका पल्य १०० बार भरा जाता है और पूर्व अनबस्थित पल्य १००० बार भरा जाता है। मानलो प्रथम अनवस्थित कुंड १० सरसों के दानों से भरा था। १० अनवस्थित कंड भरकर खाली करने पर प्रतिशलाका पल्य भरेगा यानि १०४१०=१०० बार अनवस्थित पल्य भरकर खाली करने पर प्रतिशलाका पल्य भरेगा। १० बार प्रतिशलाका पल्य भरकर खाली करने पर महाशलाका पल्य भरेगा । यानी १०० १०=१००० बार अनवस्थित पल्य भर कर खाली करने पर महाशलाका १००० १०० | बार बार अनवस्थित पल्य शलाका पल्य प्रतिशलाका पल्य महाशलाका पल्य २. (क) अमवृ. प. २१८,२१९ । (ख) त्रिसा. गा. १४-३५ । (ग) तिप. ४।३१०-३१२ । (घ) कनं. ४. पृ. २१३-२१७ । www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education Intemational
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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