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________________ ३०० पत्थगदिट्ठतेणं एसवितेणं ॥ वसहिदिट्ठतेणं ५५५. से कि तं परवगविठ्ठलेणं ? पत्वगदितेणं से जहानामए केइ पुरिसे परसुं गहाय अडविहुतो गच्छेजा, तं च के पासिता एजा कह भयं गच्छसि ? वएज्जा अविसुद्धो नेगमो भणति - पत्थगस्स गच्छामि । तं च केचिदमाणं पासिता एग्जा कि भयं दिसि? विसुद्धो नेगमो भणति पत्वगं छिदामि । तं च केंद्र तच्छेमाणं पासिता बएग्जा कि भवं तच्छेसि ? विशुद्धताओ नेगमो भवतिपत्थगं तच्छेमि । तं च के उक्किरमाणं पासिता वएज्जा - किं भवं उक्किरसि ? विसुद्धतराओ नेगमो भणति पत्थ उक्किरामि । ―➖ तं च केइ लिहमाणं पासित्ता वएज्जा - किं भवं लिहसि ? विसुद्वतराओ नेगमो भणति पत्थगं लिहामि । एवं विसुद्ध तरागस्स नेगमस्स नामाउडिओ पत्थओ । एवमेव ववहारस्स वि। संगहस्स चिओ मिजो मेज्जसमारूढो पस्थओ | Jain Education International उज्जुसुयस्स पत्थओ वि पत्थओ, मेज्जं पि परथओ तिन्हं सहनपाणं पत्थगाहिगार जाणओ पत्थओ, जस्स वा वसेणं पत्थओ निप्फजड़ से तं परथगवितेणं ॥ प्रस्थकदृष्टान्तेन प्रदेशदृष्टान्तेन । वसतिदृष्टान्तेन वथानाम अथ कि तत् प्रस्वते? प्रस्वयते तद् कश्चित्पुरुषः परशुं गृहीत्वा अटवीमुखो गच्छेत् तं च कश्चित् दृष्ट्वा क्व भवान् वदेत् गति? अविशुद्धः नैगमः भणति प्रस्थकस्य गच्छामि। तं च कश्चित् छिन्दन्तं वा वदेत् किं भवान् छिनत्ति ? विशुद्धः संगमः भगति प्रस्थकं । तं च कश्चित् तक्षन्तं दृष्ट्वा वदेत् किं भवान् तक्षति ? विशुद्धतरक: नंगमः भणति - प्रस्थकं तक्षामि । तं च कश्चित् उत्किरन्तं दृष्ट्वा वदेत् कि भवान् उत्किरति ? विशुद्धतारकः नंगमः भणति प्रस्थकम् उत्किरामि । तं च कश्चिल्लिखन्तं दृष्ट्वा वदेत् किं भवान् लिखति ? विशुडतरक: गम: भगति प्रत्यक लिखामि । एवं विशुद्धतरकस्य नैगमस्य आकुट्टितनामा प्रस्थकः । एवमेव व्यवहारस्य अपि । संग्रहस्य चितः मित: मेयसमारूढः प्रस्थकः । ऋजु सूत्रस्य प्रस्थकोऽपि प्रस्थकः, मेयमपि प्रस्वकः प्रयाणां शब्दनपानां प्रस्थकाधिकारज्ञः प्रस्थकः, यस्य वा वशेन प्रस्थको निष्पद्यते । तदेतत् प्रस्थकदृष्टान्तेन । For Private & Personal Use Only अणुओगदाराई -प्रस्थक दृष्टान्त, वसति दृष्टान्त और प्रदेश दृष्टान्त के द्वारा [ वह प्रतिपादित होता है ] प्रज्ञप्त है । ५५५. वह प्रस्थक दृष्टान्त के द्वारा प्रतिपादित नय प्रमाण क्या है ? प्रस्थक दृष्टान्त के द्वारा प्रतिपादित नय प्रमाण जैसे कोई पुरुष कुल्हाड़ी लेकर अटवी की ओर जाता है, उसे देखकर कोई कहता है आप कहां जाते हैं ? अविशुद्ध नैगमनय कहता है प्रस्थक के के लिए जाता हूं । उस [वृक्ष] को काटते हुए देखकर कोई कहता है आप क्या काटते हैं ? विशुद्ध नैगमनय कहता -प्रस्थक काटता हूं। उसे तराशते हुए देखकर कोई कहता है। आप क्या तराशते हैं ? विशुद्धतर नैगमनय कहता है - प्रस्थक तराशता हूं । उसे उकेरते हुए देखकर कोई कहता हैआप क्या उकेरते हैं ? विशुद्धवार नैगमनय कहता है प्रस्थक उकेरता हूं । उसे लिखते हुए देखकर ( प्रमार्जित करते हुए देखकर ) कोई कहता है आप क्या लिख रहे हैं ? विशुद्धतर गमनय कहता है प्रस्थ लिख रहा हूं । इस प्रकार विशुद्धतर नैगमनय नामांकित होने पर उसे प्रस्थक मानता है। इसी प्रकार व्यवहारनय भी [पूर्वोक्त सभी अवस्थाओं को प्रस्थक ] मानता है । संग्रनय धान्य से व्याप्त और पूरित होने परमेय समारूढ़ प्रस्थक को प्रस्थक मानता है । ऋजुसूत्रनय प्रस्थक को भी प्रस्थक मानता है और मेय को भी प्रस्थक मानता है । तीन शब्द नय प्रस्थक के अर्थाधिकार को जानने वाले व्यक्ति को प्रस्थक मानते हैं । अथवा जिसके बल [प्रस्थक के अर्थ का ज्ञाता व उसमें उपयुक्त ] से प्रस्थक निष्पन्न होता है [ वह ] प्रस्थक कहलाता है। वह प्रस्थक दृष्टान्त के द्वारा प्रतिपादित नय प्रमाण है । www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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