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अणओगदाराई बिलपंक्तिका-गहरे और लम्बे गड्ढे की श्रेणी ।
आराम कृत्रिम वन, जिनमें विविध प्रकार के वृक्ष लगाए जाते हैं। कदली लता, माधवी लता आदि से बने प्रच्छन्न स्थानों पर दम्पति रमण करते हैं वे आराम कहलाते हैं।'
उद्यान–पहाडी भूमि पर बना हुआ बगीचा जो फूलों और फलों से समृद्ध है, वृक्षसंकुल है। जहां उत्सव के अवसर पर लोग भोजन करने के लिए जाया करते थे।
कानन नगर के निकट साधारण कोटि के वृक्षों वाले वे बगीचे जहां केवल स्त्री या पुरुष रमण किया करते थे, जिससे आगे पर्वत या अटवी हो या जिसमें जीर्ण शीर्ण वृक्ष हो।'
वन--एक-जातीय वृक्षों से युक्त बगीचा। वनषण्ड - अनेक जाति के उत्तम वृक्षों से आकीर्ण बगीचा । वनराजि एकजातीय या अनेकजातीय वृक्षों की श्रेणी वाला बगीचा।" देवकुल-मन्दिर। स्तूप-स्मृति में बनाया जाने वाला स्तम्भ । खातिका- ऊपर और नीचे से बराबर खुदी हुई खाई।' परिखा-नीचे से संकीर्ण और ऊपर से विस्तृत रूप में खुदी हुई खाई।' प्राकार-कोट, परकोट । अट्टालक-परकोटे के ऊपर बने हुए बूर्ज।।
चरिका घर और परकोटे के बीच बना हुआ आठ हाथ चौड़ाई वाला राजमार्ग । इसी मार्ग से हाथी आदि आ जा सकते थे।
गोपुर-नगर द्वार, प्रतोली द्वार । दक्षिण भारत में मन्दिरों के आगे बहुत ऊंचे-ऊंचे गोपुर बने हुए मिलते हैं।" प्रासाद -राजा या देवता के भवन प्रासाद कहलाते हैं। अधिक ऊंचाई वाले भवनों को भी प्रासाद कहा जाता है । शरण कुटीर, तृणकुटी आदि । लयन-पर्वत में उत्कीर्ण भवन या गुफा । आपण-हाट, दुकान ।
१. (क) अचू. पृ. ५३ : विविधं सक्खलतोवसोभितं कद
लादिपच्छण्णघरेसु य वीसंभियाण रमणट्ठाणं
आरामो। (ख) अहावृ. पृ. ७८ ।
(ग) अमवृ. प. १४६ । २. (क) अचू. पृ. ५३ : पत्तपुप्फफलछायोवगादिरुक्खुवशोभितं
बहुजणविविहवेसुण्णयमाणस्स भोयणवा जाणं
उज्जाणं। (ख) अहाव. पृ.७८ ।
(ग) अमवृ. प. १४६ ॥ ३. (क) अचू. पृ. ५३ : इत्थीण पुरिसाण वा एगे पक्खे भोज्ज
जं तं काणणं, अहवा जस्स परतो पम्वयमडवी वा
सव्ववणाण य अंते वणांतं काणणं शीर्णो वा । (ख) अहावृ. पृ. ७८।
(ग) अमव. प. १४६ । ४. (क) अचू. पृ. ५३ : एगजातियरुक्खेहि वर्ण।
(ख) अहावृ. पृ. ७८ । (ग) अमवृ. प. १४६ ।
५. (क) अचू. पृ. ५३ : एगजादियअणेगजातियाण वा
रुक्खाण पंती वणराई। (ख) अहावृ. पृ. ७८ ।
(ग) अमव. प. १४६ । ६. (क) अचू, पृ. ५३ : सनखाता खाइया ।
(ख) अहावृ. पृ. ७८ ।
(ग) अमवृ. प. १४६ । ७. (क) अचू. पृ. ५३ : अहो संकुडा उवरि विशाला परिहा ।
(ख) अहावृ.पृ.७८ ।।
(ग) अमव. प. १४६ । ८. अमव. प. १४६ : प्राकारोपरि आश्रयविशेषा अट्टालकाः । ९. (क) अचू. पृ. ५३ : अंतो पागाराणं अंतरं, अगृहत्यो
रायमग्गो चरिया। (ख) अहाव. पृ. ७८ ।
(ग) अमवृ. प. १४६ । १०. (क) अचू. पृ. ५३ : दुण्हं दुवाराण अंतरे गोपुरं।
(ख) अहावृ. पृ.७८ । (ग) अमव. प. १४६ ।
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