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________________ १८ अणुओगदाराई इस निक्षेप पद्धति का भाषाशास्त्रीय मूल्य भी कम नहीं है। संयम में वीर्य का प्रयोग करें इस वाक्य में एक 'वीर्य' शब्द का प्रयोग है । यह असंख्य संदर्भों में प्रयुक्त होता है। किन्तु प्रस्तुत वाक्य में वीर्य का क्या अर्थ विवक्षित है—यह निक्षेप-पद्धति के द्वारा ही जाना जा सकता है। इसीलिए निक्षेप-पद्धति में शब्द के साथ विशेषण का प्रयोग किया जाता है। उससे शब्द में प्रतिनियत अर्थ के प्रतिपादन की शक्ति निक्षिप्त हो जाती है ।' ६. नामावश्यक ( नामावस्सयं ) प्रत्येक अर्थवान् शब्द नाम कहलाता है। उसके द्वारा पदार्थ का ज्ञान होता है। पदार्थ और नाम में वाच्य वाचक सम्बन्ध होने के कारण प्रत्येक नाम निक्षेप वन जाता है। आर्यरक्षित ने नाम की एक लम्बी तालिका प्रस्तुत की है। उसमें द्रव्य, गुण और पर्याय के नामिक, नैपातिक, आख्यातिक, औपसर्गिक, मिश्र और नक्षत्र - इस प्रकार अनेक कोणों से नामकरण के आधार प्रस्तुत किए हैं।' सूत्रकार ने आवश्यक के नामकरण के विषय में उल्लेख किया है। किसी जीव, अजीव का आवश्यक नाम कर दिया यह नाम आवश्यक है | आवश्यक नामकरण में मूल अर्थ की अपेक्षा न हो, फिर भी आवश्यक नामकरण किया जा सकता है। इस सिद्धांत को ध्यान में रखकर जिनभद्रगणी ने नाम को यादृच्छिक बतलाया है। यह नाम विवक्षित अर्थ से निरपेक्ष होने के कारण मूल अर्थ से उसका सीधा सम्बन्ध नहीं होता है । नाम किसी एक संकेत के आधार पर किया जाता है इसलिए इसका कोई पर्यायवाची शब्द नहीं होता । सूत्र ९ ७. स्थापनावश्यक (ठवणावस्सयं) पदार्थ का नामकरण करने के पश्चात् 'यह वही है' इस अभिप्राय से उसकी व्यवस्थापना करने का अर्थ है-स्थापना । वह दो प्रकार की होती है सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापना । विवक्षित व्यक्ति या वस्तु के समान आकृति वालो स्थापना सद्भाव स्थापना कहलाती है। मुख्य आकार से शून्य स्थापना असद्भाव स्थापना कहलाती है। आ० हरिभद्र एवं मलधारी हेमचन्द्र ने एक प्राचीन गाथा उद्धृत की है। उसका तात्पर्य भी यही है । विवक्षित अर्थ से शून्य आकृति को उस अभिप्राय से स्थापित करना स्थापना है। स्थापना के लिए विवक्षित के सदृश और असदृश दोनों प्रकार की आकृतियों को स्थापित किया जा सकता है। सूत्रकार ने सदृश आकृतियों के लिए काष्ठकर्म आदि का उल्लेख किया है । असदृश आकृतियों के लिए अक्ष, वराटक आदि को उदाहरण रूप में प्रस्तुत किया है। नयचक्र में स्थापना के दो प्रकार निर्दिष्ट हैं - साकार और निराकार प्रतिमा में अर्हत् की स्थापना साकार स्थापना है । केवलज्ञान आदि क्षायिक गुणों में अर्हत् की स्थापना करना निराकार स्थापना है ।" १. जैसिदी. १०१४ : शब्देषु विशेषणबलेन प्रतिनियतार्थप्रतिपादनशक्तेनिक्षेपणं निक्षेपः । कषाय पाहुड़ सूत्र २३४ टिप्पण संख्या ५ में कषाय के आठ निक्षेपों में आदेश कपाय की चर्चा आई है, उसके विषय में दो मत मिलते हैं। कषाय पाहुड़ में आदेश और स्थापना निक्षेप के भेद की मीमांसा की गई है। उसके अनुसार यह कषाय है इस प्रकार की प्ररूपणा करना और इस प्रकार की बुद्धि उत्पन्न होना आदेश कषाय है। स्थापना सद्भाव और असद्भाव दोनों प्रकार की होती २. नसुअ. २४६-३६८ । ३. विभा. २५ : पज्जायाऽभिधेयं ठिअमण्णत्थे तयत्थनिरवेक्खं । जाइच्छिअं च नामं, जावदव्वं च पाएण ॥ ४. न्याकु. २ पृ. ८०५ : स्थाप्यते इति स्थापना प्रतिकृतिः, सा च आहितनामकस्य अध्यारोपितनामकस्य द्रव्यस्य इन्द्रादेः सूत्र १० Jain Education International 'सोऽयम्' इत्यभिसन्धानेन व्यवस्थापना । ५. ( क ) अहावृ. पृ. ७ यत्तु तदर्थवियुक्तं तदभिप्रावेण पश्च तत्करणिः । लेप्यादिकर्म तत्स्थापनेति क्रियतेऽल्पकालं च ॥ (ख) अमवृ. प. : ११ । ६. नच. २७४ सायार इयर ठवणा कित्तिम इयरा हु बिबजा पढमा । इयरा खाइय भणिया ठवणा अरिहो य णायव्वो । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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