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________________ प्र० १, सू० ६,१०, टि० ६,७ है। आदेश में यह विभाग नहीं होता।' जिनभद्रगणि ने उक्त मत की समीक्षा की है। उन्होंने लिखा है कि एक नट अभिनय के समय क्रोध आदि कषाय की मुद्रा बनाता है वह आदेश निक्षेप है किन्तु चित्र में क्रोध की मुद्रा का रेखांकन स्थापना निक्षेप है क्योंकि वह स्थापना से भिन्न नहीं है । शब्द विमर्श १. काष्ठाकृति (कटुकम्मे) मनुष्य, पशु या किसी अन्य वस्तु की काष्ठ निर्मित आकृति का नाम काष्ठकर्म है। काष्ठ कर्मान्त नाम काठ के कारखाने का है। कारखाने में काठ का जिस-जिस रूप में उपयोग होता है, वह सारा काष्ठकर्म है। हरिभद्र ने काष्ठकर्म का अर्थ कुट्टिम और हेमचन्द्र ने इसका अर्थ निकुट्टित किया है। प्राचीनकाल में स्कंद, मुकुन्द आदि की प्रतिमाएं काठ की बनती थीं। काष्ठ प्रतिमा शिल्प के वैशिष्ट्य से यथार्थ जैसी दिखाई देती है। इसी कारण मुनि को काष्ठ-निर्मित स्त्री प्रतिमा से दूर रहने का निर्देश है।' २. चित्राकृति (चित्तकम्मे) मनुष्य सुरुचिपूर्ण जीवन जीना चाहता है। रुचि परिष्कार के साधनों में एक चित्रकला भी है। इस कला के अन्तर्गत प्राकृतिक दृश्य, मनुष्य, देव, पशु-पक्षी आदि का चित्रांकन किया जाता है। किसी भी आकृति का चित्रांकन करना चित्रकर्म कहलाता है।' धवला में पट कुड्य (भित्ति) एवं फलहिका (काष्ठ आदि का तख्ता) आदि पर नृत्य आदि में प्रवृत्त देव, नारक, तियंच और मनुष्यों की प्रतिमाओं को चित्रकर्म कहा गया है।" ३. पुस्तकर्म (पोत्थकम्मे) . हमारा स्वीकृत पाठ 'पोत्थकम्मे' है। हरिभद्र तथा हेमचन्द्र ने पुस्तकर्म का अर्थ वस्त्र निर्मित पुतली, वत्तिका से लिखित पुस्तक तथा ताड़पत्रीय प्रति किया है। भाषाशास्त्रीय दृष्टि से 'पुस्त' शब्द पहलवी भाषा का है। इसका अर्थ है चमड़ा। चमड़े में चित्र आदि बनाए जाते थे। उसमें ग्रन्थ भी लिखे जाते थे इसलिए उसका नाम पुस्तक हो गया। पुस्तक शब्द जब से संस्कृत और प्राकृत में व्यवहृत होने लगा, उसका अर्थ बदल गया। 'पोत्थकम्मे' इस पाठ के बाद लेप्यकर्म पाठ मिलता है । संस्कृत में पुस्त का अर्थ लेप्य भी है। किन्तु यहां पुस्त का लेप्य अर्थ विवक्षित नहीं है। कषाय पाहुड़ और धवला में 'पोत्तकम्म' पाठ मिलता है। पोत का अर्थ है वस्त्र, पोतकर्म का अर्थ होगा-वस्त्र निर्मित पुतली। प्रतीत होता है कि मलधारी हेमचन्द्र के सामने भी पोत्तकम्मे पाठ था । इसीलिए उन्होंने 'पोत्थं पोतं वस्त्र' यह लिखा है। उच्चारण और श्रुतिभेद के कारण पोत्तं का पोत्थं में परिवर्तन होना सम्भव है। १. (क) कपा. पृ. २६२ : आदेसकसाएण जहा चित्तकम्मे ६. (क) अहावृ. पृ.७: पुस्तकर्म धीउल्लिकादि वस्त्रपल्लव लिहिदो कोहो रुसिदो तिबलिदणिडालो भिडि समुत्थं वा संपुटकं मध्यवत्तिकालेख्यं वा पत्रच्छेदकाऊण। निष्फण्णं वा, उक्तं च-- (ख) विभा. २९८४ । धोउल्लिगादि वेल्लियकम्मादिनिव्वंत्तियं च जाणाहि । २. (क) अहाव. पृ.७: काष्ठे कर्म काष्ठकर्म तच्च संपुडगवत्तिलिहियं पत्तच्छज्जे य पोत्थंति ॥ कुट्टिमं । (ख) अमवृ. प. १२ : पोत्थं पोतं वस्त्रमित्यर्थः, तत्र कर्म(ख) अमवृ. प. १२ : काष्ठे कर्म काष्ठकर्म-काष्ठनिकुट्टितं तत्पल्लवनिष्पन्नं धीउल्लिकारूपकमित्यर्थः, अथवा रूपकमित्यर्थः। पोत्थं पुस्तकं तच्चेह संपुटकरूपं गृह्यते, तत्र कर्म ३. मू. २२९९ : बीहे दविये णिच्चं कट्ठकम्मति भणंति । तन्मध्ये वत्तिकालिखितं रूपकमित्यर्थः, अथवा ४. अमवृ. प.१२ :चित्रकर्म चित्रलिखितं रूपकम् । पोत्थं-ताडपत्रादि तत्र कर्म तच्छेवनिष्पन्न ५. ध. ९।४,१,५२।२४९।३ : पटकडुफलहियादिसु णच्चणादि रूपकम् । किरिया-वावददेवणेरइय-तिरिक्खमणुस्साण पडिमाओ ७. अचि. ३३५८६ : पुस्तं लेप्यादिकर्म स्याद् । चित्तकम्म । ८. कपा. पृ. २६८ : एवमेदे कट्टकम्मे वा पोत्तकम्मे वा। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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