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________________ अणुओगदाराई ४. लेप्याकृति (लेप्पकम्मे) मिट्टी आदि के लेप से निर्मित प्रतिमा का नाम लेप्यकर्म है।' ५. गूंथकर (गंथिमे) किसी वस्त्र, रस्सी या धागे में ग्रन्थियां डालकर बनाई गई आकृति को ग्रन्थिम कहा जाता है। आचार्य हरिभद्र ने पुष्पमाला और जालिका (कवचविशेष) को ग्रन्थिम वस्तुओं के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है।' कुछ व्यक्ति इस क्षेत्र में विशिष्ट कौशल से वस्त्र आदि में ग्रन्थियां डालकर आकृति बना लेते हैं। ६. वेष्टित कर (वेढिमे) फलों को वेष्टित कर बनाई गई आकृति को वेष्टिम कहा जाता है। आनन्दपुर में पुष्पवेष्टन से आकृतियां बनाने की परम्परा विशेष रूप से प्रचलित रही है। एक-दो आदि वस्त्र खण्डों से वेष्टित करके बनाई गई आकृति को वेष्टिम कहा जाता है। ७. भरकर (पूरिमे) पीतल आदि से निर्मित प्रतिमा को पूरिम कहा जाता है । भीतर से पोली प्रतिमा में पीतल आदि भरकर उसे ठोस बनाने का उपक्रम भी पूरिम कहलाता है। ८. जोड़कर (संघाइमे) अनेक वस्त्र खण्डों को जोड़कर कंचुक की भांति बनाई जाने वाली आकृति को संघातिम कहा जाता है। ९. अक्ष या कोड़ी (अक्खे वा वराडए वा) पासों और कौड़ियों को भी प्रतीक मानकर स्थापित करने की परम्परा रही है। इसी कारण स्थापना आवश्यक के वर्णन में काष्ठकर्म आदि की तरह इनका भी ग्रहण किया गया है। प्रश्न हो सकता है कि प्रतीक तो कोई भी वस्तु बन सकती है। प्रस्तुत सन्दर्भ में इन्हीं का ग्रहण क्यों किया गया? इनके ग्रहण का एक कारण यह हो सकता है कि शंख, कौड़ा, कलश, अक्षत आदि वस्तुओं को लौकिक दृष्टि से मंगल माना गया है । मांगलिक वस्तुओं को प्रतीक बनाने से मानसिक तुष्टि भी रहती है। इसीलिए असद्भावस्थापना के उदाहरण में सूत्रकार ने इनका उल्लेख किया है। काष्ठकर्म की तरह दन्तकर्म, शैलकर्म आदि का भी उल्लेख मिलता है। इसकी सूचना वृत्तिकार ने दी है। उसके अनुसार वाचनांतर में दन्तकर्म आदि पदों का समावेश किया गया है। काष्ठकर्म, पोत (वस्त्र) कर्म और चित्रकर्म को जघन्य माना जाता है। दन्तकर्म को मध्यम और शैलकर्म (मणिशिला से निर्मित वस्तु) को उत्कृष्ट माना जाता है । इनको क्रमशः विरूप, मध्यमरूप और सुरूप भी कहा गया है। सूत्र ११ नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-इन चार निक्षेपों में मूल तत्त्व भाव है क्योंकि वही वास्तविक है। नाम और स्थापना दोनों ही वास्तविक नहीं हैं। फिर इन दोनों में क्या अन्तर है ? वृत्तिकार ने इनमें कालकृत अन्तर की सूचना दी है। नाम तब तक १. अमवृ. प. १२ : लेप्यकर्म लेप्यरूपकम् । कश्चित् रूपकं उत्थापयति तद्वेष्टिमम् । २. अहाव. पृ. ७ : ग्रन्थिसमुदायजं पुष्पमालावद् जालिकावद् ६. (क) अहावृ. पृ. ७ : पूरिमं भरिमं सगर्भरीतिकादिभृतवा। प्रतिमादिवत् । ३. (क) अहाव. पृ. ७ : निवर्तयन्ति च केचिदतिशयन (ख) अमवृ. प. १२ : पूरिमं भरिमं पित्तलादिमयपुण्यान्वितास्तत्राप्तावश्यकवन्तं साधुम् । प्रतिमावत् । (ख) अमव. प. १२ : ग्रन्थिमं कौशलातिशयान् प्रन्थिसमुदाय. ७. (क) अहाव. पृ.७ : संघातिमं कंचुकवत् । निष्पादितं रूपकम् । (ख) अमवृ. प. १२ : संघातिमं बहुवस्त्रादिखण्डसंघात४. (क) अहावृ. पृ. : ७ तत्र वेष्टिमं वेष्टनकसंभवमानन्दपुरे । निष्पन्न कंचुकवत् । (ख) अमवृ. प. १२ : वेष्टिमं पुष्पवेष्टनक्रमेण निष्पन्न ८. अमवृ. प. १२ : अत्र वाचनान्तरे अन्यान्यपि दन्तकर्मादिमानन्दपुरादिप्रतीतरूपम् । पदानि दृश्यन्ते। ५. अमवृ. प. १२ : अथवा एकं यादीनि वा वस्त्राणि वेष्टयन् Jain Education Intemational ducation Intermational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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