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________________ नौवां प्रकरण : सूत्र ३६९-४०६ २२६ ४०१. एएणं उस्सेहंगलेणं कि पओ- एतेन उत्सेधांगलेन कि प्रयोज- ४०१. इस उत्सेधांगुल का क्या प्रयोजन है ? यणं? एएणं उस्सेहंगुलेणं नेरइय- नम् ? एतेन उत्सेधांगुलेन नैरयिक- इस उत्सेधांगुल से नैरयिक, तिर्यक्तिरिक्खजोणिय-मणस्स-देवाणं तिर्यग्योनिक-मनुष्य-देवानां शरीराव- योनिक, मनुष्य और देवों के शरीर की सरीरोगाहणाओ मविज्जति ॥ गाहना मीयन्ते। अवगाहना नापी जाती है । ४०२. नेरइयाणं भंते ! केमहालिया नैरयिकाणां भदन्त ! कियन्- ४०२. भन्ते ! नैरयिक जीवों के शरीर की अव सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा! महती शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता ? ___गाहना कितनी बड़ी है ? दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-भव- गौतम ! द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा गौतम ? शरीरावगाहना के दो प्रकार प्रज्ञप्त धारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य। भवधारणीया च उत्तरक्रिया च । हैं, जैसे-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । तत्थ णं जासा भवधारणिज्जा सा तत्र या एषा भवधारणीया सा ___ इनमें भवधारणीय अवगाहना जघन्यत: अंगुल जहण्णणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, जघन्येन अंगुलस्य असंख्येयतमभागम्, के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्टत: पांच उक्कोसेणं पंच धणसयाई। तत्थ उत्कर्षेण पंव धनुःशतानि । तत्र या सौ धनुष्य की होती है। णं जासा उत्तरवेउब्विया सा एषा उत्तरवैक्रिया सा जघन्येन उत्तरवैक्रिय अवगाहना जघन्यतः अंगुल के जहणणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं, अंगुलस्य संख्येयतमभागम्, उत्कर्षेण । संख्यातवें भाग की और उत्कृष्टतः एक हजार उक्कोसेणं धणुसहस्सं ॥ धनुःसहस्रम् । धनुष्य की होती है।१२ ४०३. रयणप्पभापुढवीए नेरइयाणं रत्नप्रभापृथिव्याः नरयिकाणां ४०३. भन्ते ! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों की भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा __भदन्त ! कियन्महती शरीरावगाहना शरीरावगाहना कितनी बड़ी है ? पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा प्रज्ञप्ता ? गौतम ! द्विविधा प्रज्ञप्ता, गौतम ! अवगाहना के दो प्रकार प्रज्ञप्त पण्णत्ता, तं जहा-भवधारणिज्जा तद्यथा-भवधारणीया च उत्तर- हैं, जैसे-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय । य उत्तरवेउविया य। तत्थ णं वैक्रिया च । तत्र या एषा भव इनमें भवधारणीय अवगाहना जघन्यतः जासा भवधारणिज्जा सा जहण्णणं __ धारणीया सा जघन्येन अंगुलस्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्टतः अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्को- ___ असंख्येयतमभागम्, उत्कर्षेण सप्त सात धनुष्य, तीन रत्नि और छह अंगुल की सेणं सत्त धणइं तिण्णि रयणीओ धनूंषि तिस्रः रत्नयः षट् च अंगुलाः। होती है। छच्च अंगलाई। तत्थ णं जासा ___ तत्र या एषा उत्तरवैक्रिया सा उत्तरवैक्रिय अवगाहना जघन्यतः अंगुल उत्तरवेउब्विया सा जहणणं जघन्येन अंगुलस्य संख्येयतमभागम्, के संख्यातवें भाग की और उत्कृष्टत: पन्द्रह अंगुलस्स संखेज्ज इभागं, उक्कोसेणं उत्कर्षेण पञ्चदश धनूंषि द्वे रत्नी धनुष्य, दो रत्नि और बारह अंगुल की होती पण्णरस धणइं दोण्णि रयणीओ द्वादश अंगुलाः। बारस अंगुलाई॥ ४०४. एवं सवाणं दुविहा–भवधार- एवं सर्वासा द्विविधा-भव- ४०४ इस प्रकार सब पृथ्वियों के नैरयिकों की दो णिज्जा जहणणं अंगुलस्स असं- धारणीया जघन्येन अंगुलस्य असंख्येय- प्रकार की [शरीरावगाहना] है-भवधारणीय खेज्जइभागं, उक्कोसेणं दुगुणा तमभागम, उत्कर्षेण द्विगुणा द्विगुणा। जघन्यत: अंगुल के असंख्यातवें भाग की और दुगुणा । उत्तरवेउव्विया जहण्णणं __उत्तरवैक्रिया जघन्येन अंगुलस्य उत्कृष्टत: दुगुनी-दुगुनी होती हैं। अंगुलस्त संखेज्जइभाग, उक्कोसेणं संख्येयतमभागम, उत्कर्षेण द्विगुणा उत्तरवैक्रिय जघन्यतः अंगुल के संख्यादुगुणा दुगुणा ॥ द्विगुणा। तवें भाग की और उत्कृष्टतः दुगुनी-दुगुनी होती है। ४०५. एवं असुरकुमाराईणं जाव एवम् असुरकुमारादीनां यावद् ४०५. इस प्रकार असुरकुमार से अनुत्तरविमान अणत्तरविमाणवासीणं सगसगस- अनुत्तरविमानवासिनां स्वकस्वक- वासी देवों तक अपनी-अपनी शरीरावगाहना रीरोगाहणा भाणियव्वा ॥ शरीरावगाहना भणितव्या। प्रतिपादनीय है। [देखें प्रज्ञापना पद २१] ४०६. से समासओ तिविहे पण्णत्ते, तं स समासत: त्रिविधः प्रज्ञप्तः, ४०६. उत्सेधांगुल के संक्षेप में तीन प्रकार प्रज्ञप्त जहा-सूइअंगुले पयरंगुले घणं- तद्यथा-सूच्यंगुलः प्रतरांगलः घना- हैं, जैसे -सूचीअंगुल, प्रतरअंगुल और धन Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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