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________________ दसवां प्रकरण : सूत्र ४६१-४६६ ४६४. वाणमंतराणं ओरालिपसरा जहा नेरद्रयाणं || ४६५. वाणमंतराणं भंते! केवइया वेव्वियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा बलाय मुक्केला व तत्थ णं जेते बद्धेल्लया ते णं असं खेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीओपिहि अवहरति कालओ, खेत्तओ असंखेज्जाओ सेढीओ पयरस असंवेज्जइभागो। तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई संखेज्जजोयणसपवग्गपलिभागो पपरस्स । मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया ॥ ४६६. आहारगसरीरा दुविहा वि जहा असुरकुमाराणं ॥ ४६७. वाणमंतराणं भंते ! फेवदया तेयग-कम्मगसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहा एएस चैव वेउविसरीरा तहा तेयग-कम्मगसरोरा वि भाणियव्वा ॥ ओरालियरीरा ४८. जोइसियाणं जहा नेरयाणं || केवइया पण्णत्ता ? ४६६. जोइसियाणं भंते ! वेव्वियसरीरा गोयमा ! दुबिहा पण्णत्ता तं जहा - बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जेते बद्धेल्लया ते णं असंखेम्जा, असंज्जाह उस्स पिणो-ओसप्पिणीहि अवहीरंति कालओ, खेत्तओ असंखेज्जाओ सेढीओ परस्स असंखेज्जइभागो, तासि णं सेढीणं विक्खमसूई बेछपणंगुल सयवग्ग पसिनागो पयरस्स । मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालिया ॥ Jain Education International वानमन्तराणाम् औदारिकशरीराणि बबा नैरविणाम्। वानमन्तराणां भदन्त ! कियन्ति वैक्रियशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि तद्यथाबद्धानि च मुक्तानि च । तत्र यानि एतानि बद्धानि तानि असंख्येयानि, असंख्येयाभिः उत्सपिण्यवसर्पिणीभिः अपह्रियन्ते कालतः, क्षेत्रतः असंख्येयाः श्रेण्यः प्रतरस्य असंख्येयतमभागः । तासां श्रेणीनां विष्कम्भसूचि संख्येययोजनशतवर्गप्रतिभाग: प्रतरस्य । मुक्तानि यथा औधिकानि औदारिकाणि । आहारकशरीराणि द्विविधानि अपि यथा असुरकुमाराणाम् । वानमन्तराणां भदन्त ! कियन्ति तेजस - कर्मकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! यथा एतेषां चैव वैक्रियशरीराणि तथा तेजस-कर्मकशरीराणि अपि मणितव्यानि । ज्योतिविकायाम औदारिकशरीराणि यथा नरयिकाणाम् । तद्यथा ज्योतिषिकाणां भदन्त ! कियन्ति वैक्रियशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! द्विविधानि प्रतप्तानि बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र यानि एतानि बद्धानि तानि असंख्येयानि, असंख्येयाभिः उत्सव अपह्रियन्ते कालतः, क्षेत्रतः असंख्येयाः श्रेण्यः प्रतरस्य असंख्येयतमभागः, तासां श्रेणीनां विष्कम्भसूचि: द्विशतषट्पञ्चाशदङ्गुलवर्गप्रतिभागः प्रतरस्य । मुक्तानि यथा औधिकानि औदारिकाणि । For Private & Personal Use Only २७५ ४९४. वानमंतर देवों के औदारिक शरीर नैरयिकों की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सु. ४५२ ] । ४९५. भन्ते ! वानमंतर देवों के वैक्रिय शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! वैक्रिय शरीर के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे बद्ध और मुक्त | उनमें जो बद्ध हैं वे असंख्येय हैं, काल की दृष्टि से असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उनका अपहार होता है । क्षेत्र की दृष्टि से प्रतर के असंख्येय भाग में होने वाली असंख्येय श्रेणियां होती हैं उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची प्रतर के संख्य सौ योजन के वर्ग रूप प्रतिभाग जितनी होती है । मुक्त शरीर औधिक औदारिक शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं।" [देखें सू. ४५७]। ४९६. आहारक शरीर के दोनों प्रकार असुरकुमार देवों की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. ४६८]। ४९७. भन्ते ! वानमंतर देवों के तेजस और कार्मण शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! तेजस और कार्मण शरीर भी इन्हीं के वैयि शरीर को भाति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. ४९५] ४९८. ज्योतिष्क देवों के औदारिक शरीर नैरयिक जीवों की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. ४६२] । ४९९. भन्ते ! ज्योतिष्क देवों के वैक्रिय शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! वैक्रिय शरीर के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे -बद्ध और मुक्त । ज्योतिष्क देवों के बद्ध वैक्रिय शरीर असंख्येय हैं काल की दृष्टि से असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उनका अपहार होता है । क्षेत्र की दृष्टि से असंख्य श्रेणी प्रतर का असंख्यातवां भाग है। उन श्रेणियों की विकी दो सौ पप्पन अंगुल वर्ग रूप प्रतिभाग जितनी होती है।" मुक्त शरीक औधिक औदारिक शरीर की भांति प्रतिपादनीय है। देखें सु. ४५७] । www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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