SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७६ ५००. आहारगसरीरा जहा नेरइयाणं तहा भाणियव्वा ॥ ५०१. तेयग- कम्मगसरीरा जहा एएस चेव वेउब्विया तहा भाणियया ॥ ५०२. बेमाणियाणं भंते! केवइया ओरालियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा। जहा नेरइयाणं तहा ॥ ५०३. माणिवाणं भंते! केवडया वेव्वियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुबिहा पण्णत्ता तं जहा -- बल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जेते बद्धेल्लया ते णं असंखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पणी-ओसप्पिणीह अवहीरंति कालओ, खेत्तओ असंखेज्जाओ सेढीओ परस्स असंखेज्जइभागो, तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलबीयवग्गमूलं तइयवग्गमूलपष्पणं, अहवणं अंगुलतइया मूलघणप्यमाणमेत्ताओ सेटीओ । मुक्केलया जहा ओहिया ओरालिया || ५०४. आहारगसरीरा जहा नेरइयाणं ॥ ५०५. यग कम्मगसरीश जहा एएसि चेव वेउब्वियसरीरा तहा भाणि यव्वा । से तं सुहुमे खेत्तपलिओवमे । से तं खेत्तपलिओवमे । से तं पलिओवमे । से तं विभाग निष्कण्णे से से कालप्यमाणे ॥ Jain Education International आहारकशरीराणि यथा रविकाणां तथा भणितव्यानि । यथा तंज- कर्मशरीराणि एतेषां चैव वैक्रियाणि तथा भणितव्यानि । वैमानिकानां भदन्त ! कियन्ति औदारिकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! यथा नैरयिकाणां तथा । वैमानिकानां भदन्त ! कियन्ति वैक्रियशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र यानि एतानि बद्धानि तानि असंख्येयानि, असंख्येयाभि: उत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिः अपह्रियन्ते कालतः, क्षेत्रतः असंख्येयाः श्रेण्यः प्रतरस्य असंख्येयतमभागः, तासां श्रेणीनां विष्कम्भसूचि: अंगुल द्वितीयवर्गमूलं तृतीय वर्ग - मूलप्रत्युत्पन्नम्, अथवा अंगुल तृतीयवर्गमूलधनप्रमाणमात्राः श्रेण्यः । मुक्तानि यथा औधिकानि औदारिकाणि । आहारकशरीराणि यच रवि काणाम् । तेजस - कर्मकशरीराणि यथा एतेषां चंद मंत्रियशरीराणि तथा भणितव्यानि । तदेतत् सूक्ष्मं क्षेत्रपल्योपमम् । तदेतत् पत्योपमम् । तबेतद् विभागनिष्पन्नम् । तदेतत् कालप्रमाणम् । For Private & Personal Use Only अणुओगदाराई ५००. ज्योतिष्क देवों के आहारक शरीर नैरयिकों की भांति प्रतिपादनीय है। [देखें सू. ४६४] । ५०१. तेजस और कार्मण शरीर इन्हीं के वैक्रिय शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. ४९९] ५०२. भन्ते ! वैमानिक देवों के औदारिक शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! उनके औदारिक शरीर नरयिक जीवों की भांति प्रतिपादनीय हैं। [ देखें सू. ४५२] । ५०३. भन्ते ! वैमानिक देवों के वैक्रिय शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! वैक्रिय शरीर के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- बद्ध और मुक्त। वैमानिक देवों के बद्ध वैक्रिय शरीर असंख्येय हैं, काल की दृष्टि से असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उनका अपहार होता है। क्षेत्र की दृष्टि से असंख्येय श्रेणी प्रतर का असंख्यातवां भाग । उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची (यानी केवल एक आयाम में लम्बाई मात्र में व्याप्त श्रेणियों की संख्या) इस प्रकार प्राप्त होती है एक अंगुल ( प्रमाण प्रतर के आकाश प्रदेशों) के द्वितीय वर्गमूल को अंगुल के तृतीय वर्गमूल को गुणित करने पर जो राशि प्राप्त होती है, ( वह श्रेणियों की संख्या है ।) अथवा अंगुल के तृतीय वर्ग मूल के घन प्रमाण जितनी श्रेणियां वैमानिक देवों के मुक्त वै शरीर औधिक ओदारिक शरीर की भांति प्रतिपादनीम है। [देखें सू. ४५७] ५०४. इनके आहारक शरीर नैरयिक जीवों की भांति प्रतिपादनीय हैं । [ देखें सू. ४६४ ] । ५०५ इनके तेजस और कार्मण शरीर इन्हीं के वैक्रिय शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं । [देखें . ५०३] वह सूक्ष्म क्षेत्र पस्योपम है। यह क्षेत्र पत्वोषम है। वह पयोषम है। वह विभागनिष्पन्न है । वह काल प्रमाण है । www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy