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ज्जाहिं उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीहि सर्पिणीभिः कालतः, क्षेत्रतः कालओ, खेत्तओ अंगुलपढमवग्ग- अंगुलप्रथमवर्गमूलं तृतीयवर्गमूलमूलं तइयवग्गमूलपडुप्पण्णं। प्रत्युत्पन्नम् । मुक्तानि यथा औघिमुक्केल्लया जहा ओहिया ओरा- कानि औदारिकाणि । लिया ॥
अणुओगदाराई शरीर असंख्येय होते हैं। काल की दृष्टि से उनका अपहार असंख्येय उत्सपिणी और अवसर्पिणी में किया जाता है।
क्षेत्र की दृष्टि से उत्कृष्ट पद में होनेवाले मनुष्यों में एक मनुष्य का प्रक्षेप करने पर उनके द्वारा एक आकाश प्रदेश की श्रेणी का अवहार होता है। इस कार्य में असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी का काल लगता है। क्षेत्र खण्ड का अवहार किया जाए तो श्रेणी के अंगुल प्रमाण क्षेत्र में होने वाली प्रदेश राशि के प्रथम वर्गमूल को तृतीय वर्गमूल से गुणित करने पर जो प्रदेश राशि प्राप्त होती है उतने मनुष्य होते हैं।
मुक्त शरीर औधिक औदारिक शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. ४५७] ।
४९१. मणस्साणं भंते? केवइया वेउ- मनुष्याणां भदन्त ! कियन्ति ४९१. भन्ते ! मनुष्यों के वैक्रिय शरीर कितने ब्वियसरीरा पण्णत्ता? गोयमा ! वैक्रियशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? प्रज्ञप्त हैं ?
विहा पण्णत्ता, तं जहा बद्धं- गौतम ! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, गौतम ! वैक्रिय शरीर के दो प्रकार प्रज्ञप्त ल्लया य मुक्कल्ला य । तत्थ णं तद्यथा-बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र हैं, जैसे-बद्ध और मुक्त। मनुष्यों के बद्ध जेते बद्धेल्लया ते णं संखेज्जा, यानि एतानि बद्धानि तानि संख्ये- वैक्रिय शरीर संख्येय हैं, एक-एक समय में समए-समए अवहीरमाणा-अवहीर- यानि, समये-समये अपहियमाणानि- एक एक शरीर का अपहार करने पर माणा संखेज्जेणं कालेणं अवही- अपह्रियमाणानि संख्येयेन कालेन असंख्येय काल में उनका अपहार होता है रंति, नो चेव णं अवहिया सिया। अपह्रियन्ते, नो चैव अपहृतानि स्युः। किन्तु उनका अपहार किया नहीं जाता। मक्केल्लया जहा ओहिया ओरा- मुक्तानि यथा औधिकानि औदारि- मुक्त वैक्रिय शरीर औधिक औदारिक लिया ॥ काणि ।
शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू.
४६२. मणस्साणं भंते ! केवइया मनुष्याणां भदन्त ! कियन्ति ४९२. भन्ते ! मनुष्यों के आहारक शरीर कितने
आहारगसरीरा पण्णत्ता? आहारकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? प्रज्ञप्त हैं ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा गौतम ! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, गौतम ! आहारक शरीर के दो प्रकार ----बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ तद्यथा--बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र प्रज्ञप्त हैं, जैसे-बद्ध और मुक्त। मनुष्यों के णं जेते बद्धल्लया ते णं सिय अस्थि यानि एतानि बद्धानि तानि स्याद् बद्ध आहारक शरीर कभी होते हैं और कभी सिय नत्थि, जइ अस्थि जहण्णणं अस्ति स्याद् नास्ति, यदि अस्ति नहीं होते। यदि होते हैं तो जघन्यतः एक दो एगो वा दो वा तिणि वा, उक्को- जघन्येन एक वा द्वे वा त्रीणि वा, अथवा तीन और उत्कृष्टत: दो हजार से नौ सेणं सहस्सपुहत्तं। मुक्केल्लया उत्कर्षेण सहस्रपृथक्त्वम्। मुक्तानि हजार तक होते हैं। जहा ओहिया ओरालिया। यथा औधिकानि औदारिकाणि। . मुक्त शरीर औधिक औदारिक शरीर की
भांति प्रतिपादनीय है। [देखें सू. ४५९] ।
४६३. तेयग-कम्मगसरीरा जहा एएसि तैजस-कर्मकशरीराणियथा ४९३. मनुष्यों के तैजस और कार्मण शरीर इन्हीं
चेव ओरालिया तहा भाणि- एतेषां चैव औदारिकाणि तथा के औदारिक शरीर की भांति प्रतिपादनीय यव्वा ॥ मणितव्यानि ।
हैं। [देखें सू. ४९०] ।
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