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________________ २७३ दसवां प्रकरण : सूत्र ४८०-४६० ४८५. जहा बेइंदियाणं तहा तेइंदिय चरिदियाण वि भाणियब्वं ॥ यथा द्वीन्द्रियाणां तथा त्रीन्द्रिय- ४८५. त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के शरीर चतुरिन्द्रियाणाम् अपि भणितव्यम् । द्वीन्द्रिय जीवों की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. ४८२-४८४] । ४८६. पंचिदियतिरिक्खजोणियाण वि पञ्चेन्द्रियतिर्यगयोनिकानाम् अपि ४८६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों के औदा ओरालियसरीरा एवं चेव भाणि- औदारिकशरीराणि एवं चैव भणि- रिक शरीर इसी भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें यव्वा ॥ तव्यानि। सू. ४८२] । ४८७. पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां ४८७. भन्ते ! पञ्चेन्द्रिय तिर्यगयोनिक जीवों के भंते ! केवइया वेउव्वियसरीरा भदन्त ! कियन्ति बैक्रियशरीराणि वैक्रिय शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? पण्णता? गोयमा! दुविहा प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! द्विविधानि गौतम ! वैक्रिय शरीर के दो प्रकार प्रज्ञप्त पण्णत्ता, तं जहा-बद्धेल्लया य प्रज्ञप्तानि, तद्यथा -बद्धानि च हैं, जैसे बद्ध और मुक्त। उनमें जो बद्ध हैं मक्केल्लया य। तत्थ णं जेते मुक्तानि च। तत्र यानि एतानि वे असंख्येय हैं, काल की दृष्टि से असंख्येय बद्धेल्लया ते णं असंखेज्जा- बद्धानि तानि असंख्येयानि- उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उनका अपहार असंखेज्जाहि उस्सप्पिणी-ओस प्पि- असंख्येयाभिः उत्सपिण्यवसपिणीभिः होता है । क्षेत्र की दृष्टि से प्रतर के असंख्येय णीहि अवहीरंति कालओ, खेत्तओ अपह्रियन्ते कालतः, क्षेत्रतः असंख्येयाः भाग में होने वाली उन श्रेणियों की विष्कम्भ असंखेज्जाओ सेढीओ पयरस्स श्रेण्यः प्रतरस्य असंख्येयतमभागः, सूची के अंगुल प्रमाण प्रतर क्षेत्र के प्रथम असंखेज्जइभागो, तासि णं सेढीणं तासां श्रेणीनां विष्कम्भसूचिः अंगुल- वर्गमूल का असंख्यातवां भाग है। विक्खंभसूई अंगुलपढभवग्गमूलस्स प्रथमवर्गमूलस्य असंख्येयतमभागः । उनके मुक्त वैक्रिय शरीर औधिक औदाअसंखेज्जइभागो । मुक्केल्लया जहा मुक्तानि यथा औधिकानि औदारि- रिक शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें ओहिया ओरालिया । सू. ४५७] । ४८८. आहारगसरीरा जहा बेइंदि- आहारकशरीराणि यथा द्वीन्द्रि- ४८८. आहारक शरीर द्वीन्द्रिय जीवों की भांति याणं ।। याणाम् । प्रतिपादनीय हैं । [देखें सू. ४८३] । ४८६. तेयग-कम्मगसरोरा जहा ओरा- तेजस-कर्मकशरीराणि यथा औदा- ४८९. तेजस और कार्मण शरीर औदारिक शरीर लिया । रिकाणि । की भांति प्रतिपादनीय हैं । [देखें सु. ४८७] । काणि । ४६०. मणस्साणं भंते ! केवइया ओरा- मनुष्याणां भदन्त ! कियन्ति ४९०. भन्ते ! मनुष्यों के औदारिक शरीर कितने लियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा! औदारिकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? प्रज्ञप्त हैं ? दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-बद्धे- गौतम ! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, गौतम ! औदारिक शरीर के दो प्रकार ल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं तद्यथा-बद्धानि च मुक्तानि च । प्रज्ञप्त हैं, जैसे बद्ध और मुक्त। उनमें जो जेते बद्धेल्लया ते ण सिय संखेज्जा तत्र यानि एतानि बद्धानि तानि स्यात् बद्ध हैं वे कभी संख्येय होते हैं, और कभी सिय असंखेज्जा। जहण्णपए संख्येयानि स्यात् असंख्येयानि । असंख्येय होते हैं। संखेज्जा संखेज्जाओ कोडोओ जघन्यपदे संख्येयानि संख्येया: जघन्य पद में मनुष्यों के बद्ध औदारिक एगणतीसं ठाणाई, तिजमलपयस्स कोट्य: एकोनत्रिंशत् स्थानानि, शरीर संख्येय होते हैं। [संख्यय का प्रमाण उरि चउजमलपयस्स हेटा, अहव त्रियमलपदस्य उपरि चतुर्यमलपदस्प इस प्रकार है]-संख्येय करोड़, उनतीस अंक णं छटो वग्गो पंचमवग्गपडु- अधः, अथवा षष्ठः वर्ग: पंचमवर्ग- जितनी [आगमिक संज्ञा के अनुसार त्रियमल प्पण्णो, अहव णं छण्णउइछेयण- प्रत्युत्पन्नः, अथवा षण्णवतिछेदनक- पद से अधिक और चतुर्यमल पद से कम गदायिरासी। उक्कोसपए असं- दायिराशिः । उत्कर्षपदे असंख्येयानि होते हैं। अथवा पांचवें वर्ग से गुणित छट्टे खेज्जा....असंखेज्जाहि उस्सप्पिणी---असंख्येयाभिः उत्सपिण्यवसपि वर्ग, अथवा जो राशि आधे-आधे रूप में छिन्न ओसप्पिणीहि अवहीरंति कालओ, णीभिः अपहियन्ते कालतः, क्षेत्रत: करने पर छियानवे बार छिन्न हो सके उतने खेत्तओ उक्कोसपए रूवपक्खित्तेहि उत्कर्षपदे रूपप्रक्षिप्त: मनुष्यैः श्रेणिः होते हैं।" मणुस्सेहि सेढी अवहीरइ, असंखे- अपहियते, असंख्येयाभिः उत्सपिण्यव- उत्कृष्ट पद में मनुष्यों के बद्ध औदारिक Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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