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________________ २७२ अणुओगदाराई ४८०. वणस्सइकाइयाण ओरालिय- वनस्पतिकायिकानाम औदारिक- ४८०. वनस्पतिकायिक जीवों के औदारिक, वैक्रिय वेउब्विय-आहारगसरीरा जहा वैक्रिय-आहारकशरीराणि यथा और आहारक शरीर पृथ्वीकायिक जीवों की पुढ विकाइयाणं तहा भाणियन्वा ॥ पृथिवीकायिकानां तथा भणित- भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें मू. ४७१ ध्यानि । ४८१. वणस्सइकाइयाणं भते ! केवइया वनस्पतिकायिकानां भदन्त ! ४८१. भन्ते ! वनस्पतिकायिक जीवों के तेजस तेयग-कम्मगसरोरा पण्णत्ता? कियन्ति तैजस-कर्मकशरीराणि और कार्मण शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गोयमा ! जहा ओहिया तेयग- प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! यथा औघि- गौतम ! वनस्पतिकायिक जीवों के तेजस कम्मगसरीरा तहा वणस्सइकाइ- कानि तेजस-कर्मकशरीराणि तथा और कार्मण शरीर औधिक तेजस और कार्मण याण वि तेयग-कम्मगसरीरा वनस्पतिकायिकानाम् अपि तैजस- शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. भाणियव्वा । कर्मकशरीराणि भणितव्यानि । ४६०,४६१] । ४८२. बेइंदियाणं भंते ! केवइया द्वीन्द्रियाणां भदन्त ! कियन्ति ४८२. भन्ते ! द्वीन्द्रिय जीवों के औदारिक शरीर ओरालियसरीरा पण्णत्ता? औदारिकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? कितने प्रज्ञप्त हैं ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा गौतम ! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि, गौतम ! औदारिक शरीर के दो प्रकार -बधेल्लया य मुक्केल्लया य। तद्यथा बद्धानि च मुक्तानि च । प्रज्ञप्त हैं, जैसे—बद्ध और मक्त। जो बद्ध हैं तत्थ णं जेते बद्धेल्लया ते णं असं- तत्र यानि एतानि बद्धानि तानि वे असंख्येय हैं, काल की दृष्टि से असख्येय खेज्जा, असंखेज्जाहि उस्सप्पिणी- असंख्येयानि, असंख्येयाभिः उत्सपि- उत्सर्पिणी और अवसपिणी में उनका अपहार होता है। क्षेत्र की दृष्टि से वे प्रतर के ओस प्पिणोहि अवहीरंति कालओ, ण्यवसर्पिणीभिः अपह्रियन्ते कालतः, असंख्येय भाग में होनेवाली असंख्येय श्रेणियों खेत्तओ असंखेज्जाओ सेढीओ क्षेत्रत: असंख्ययाः श्रेण्यः प्रतरस्य के आकाश प्रदेश जितने होते हैं। उन श्रेणियों पयरस्स असंखेज्जइभागो। तासि असंख्येयतमभागः । तासां श्रेणीनां की विष्कम्भसूची असंख्येय कोडाकोड़ योजन णं सेढीगं विक्खंभसूई असंखेज्जाओ विष्कम्भसूचिः असंख्येयाः योजन जितनी होती है। अथवा उन श्रेणियों के जोयणकोडाकोडीओ, असंखेज्जाई कोटिकोट्यः, असंख्येयानि श्रेणिवर्ग असंख्येय वर्गमूल जितनी होती है। सेढिवग्गमूलाई। बेइंदियाणं ओरा- मूलानि । द्वीन्द्रियाणाम् औदारिक [प्रकारान्तर से द्वीन्द्रिय जीवों के बद्ध लियसरीरेहि बद्धेल्लएहि पयरो शरीरैः बद्धः प्रतरः अपहियते औदारिक शरीरों का प्रमाण प्रतर (में पूर्णत: अवहीरइ असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणी- असंख्येयाभिः उत्सपिण्यवसपिणीभिः समाविष्ट द्वीन्द्रिय जीवों के बद्ध औदारिक ओसप्पिणीहि कालओ, खेत्तओ कालतः, क्षेत्रत: अंगुलप्रतरस्य आव- शरीरों) का अपहार करने से प्राप्त होता है । अपहार की यह क्रिया काल की दृष्टि से अंगुलपयरस्स आवलियाए य लिकायाः च असंख्येयतमभागप्रति असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल असंखेज्जइभागपलिभागेणं । मुक्के- भागेन । मुक्तानि यथा औधिकानि जितने काल में सम्पन्न होगी। क्षेत्र की दृष्टि ल्लया जहा ओहिया ओरालिय- औदारिकशरीराणि तथा मणि से वे अंगूल प्रतर या आवलिका के असंख्यात सरीरा तहा भाणियन्वा ॥ तव्यानि। भाग रूप प्रतिभाग जितने होते हैं।" उनके मक्त औदारिक शरीर औधिक औदारिक शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. ४५७] । ४८३. वेउम्विय-आहारगसरीरा बद्ध- वैक्रिय-आहारकशरीराणि बद्धानि ४८३. द्वीन्द्रिय जीवों के बद्ध वैक्रिय और आहारक ल्लया नथि। मुक्केल्लया जहा नास्ति । मुक्तानि यथा औधिकानि शरीर नहीं होते। उनके मुक्त वैक्रिय और ओहिया ओरालियसरीरा तहा औदारिकशरीराणि तथा भणि- आहारक शरीर मुक्त औधिक औदारिक भाणियव्वा ॥ तव्यानि । शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. ४५७] । ४८४. तेयग-कम्मगसरोरा जहा एएसि तेजस-कर्मकशरीराणि यथा चेव ओरालियसरीरा तहा भाणि- एतेषां चैव औदारिकशरीराणि तथा यव्वा ॥ भणितव्यानि । ४८४. तेजस और कार्मण शरीर इन्हीं के औदा रिक शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. ४८२]1 Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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