________________
प्र०१०, सू० ४६३-४६०, टि०८-१३
२८५
सूत्र ४८२ १०. क्षेत्र की दष्टि से......श्रेणियों के असंख्येय वर्गमूल जितनी होती है (खेत्तओ....."असंखेज्जाई सेढिवग्गमूलाई)
____ क्षेत्र की अपेक्षा से बद्ध औदारिक शरीर प्रतर के असंख्यातवें भाग में वर्तमान असंख्यात श्रेणियों के प्रदेशों की राशि प्रमाण हैं । उन श्रेणियों की विष्कंभसूची असंख्यात कोटाकोटि योजन प्रमाण है। इतने प्रमाण वाली विष्कभसूची असंख्यात श्रेणियों के वर्गमूल रूप है।
आकाश श्रेणी में रहे हुए समस्त प्रदेश असंख्यात होते हैं। कल्पना से समझे वे ६५५३६ हैं। ये ६५५३६ असंख्यात के बोधक हैं।
१/२ ३ ४ ५ क्रम |
२४ | १६ | २५६ | ६५५३६ | स्वर्गमूल | इस संख्या का प्रथम वर्गमूल क्रम नम्बर ४ के नीचे २५६ है। द्वितीय वर्गमूल क्रम नं. ३ के नीचे १६ है। तृतीय वर्गमूल क्रम नं. २ के नीचे ४ है। चतुर्थ वर्गमूल क्रम नं. १ के नीचे २ है। इन बर्गमूलों का योग किया (२५६+१६+४+२, २७८ । असंख्यात के स्थान पर कल्पित संख्या ६५५३६ की २७८ प्रदेश वाली विष्कंभसूची होगी। ११. क्षेत्र की दृष्टि से वे अंगुल प्रतर या आवलिका के असंख्यात भागरूप प्रतिभाग जितने होते हैं (खेत्तओ अंगुलपयरस्स आवलियाए य असंखेज्जइभागपलिभागेणं)
क्षेत्र की अपेक्षा से प्रतर के जितने प्रदेश हैं उनको एक-एक द्वीन्द्रिय जीवों से भरा जाए। फिर उन प्रदेशों से आवलिका के असंख्यातवें भाग रूप समय में एक एक द्वीन्द्रिय जीव को निकाला जाए तो आवलिका के असंख्यात भाग लगते हैं। इतने प्रदेश अंगुल प्रतर के हैं। उस प्रतर के जितने प्रदेश हैं उतने द्वीन्द्रिय जीवों के बद्ध औदारिक शरीर हैं। ऊपर कथित संख्या में और नीचे कथित संख्या में कोई भेद नहीं है केवल कथन शैली की भिन्नता है।
सूत्र ४८७ १२. क्षेत्र की दृष्टि से....."असंख्यातवां भाग (खेत्तओ....... असंखेज्जइभागो)
पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्योनिकों के वैक्रिय शरीर क्षेत्र की अपेक्षा से प्रतर के असंख्यातवें भाग में असंख्यात श्रेणियों के प्रदेश राशि प्रमाण है । उन श्रेणियों की विष्कंभसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग जितनी है। कल्पना से मान लें वे असंख्यात श्रेणियां १६ हैं । उनका प्रथम वर्गमूल ४ होता है। असंख्यात के स्थान पर मानी गई १६ श्रेणियों का वर्गमूल ४ है। विष्कभसूची इस ४ का असंख्यातवां भाग जितनी होगी।
|१|| ३| क्रम | २| ४ | १६ | स्वर्गमूल ।
सूत्र ४९० १३. जघन्य पद में....."छियानवे बार छिन्न हो सके उतने होते हैं (जहण्णपए......"छण्णउइछेयणगदायिरासी)
संख्यात के भी संख्यात भेद होते हैं। इसलिए संख्यात कहने से निश्चित संख्या का बोध नहीं होता। निश्चित संख्या का कथन करने के लिए संख्यात कोटाकोटि कहा गया है। इसको और स्पष्ट करने के लिए २९ स्थान (अंक दशमलव) कहे गए हैं। ३ यमल पद से अधिक और ४ यमल पद से कम कहा गया है।
८ अंकों का (दशमलव) एक यमल पद होता है । २९ अंकों (दशमलव) के ३ यमल पद से ५ अंक अधिक होते हैं और ४ यमल पद से कम हैं।
प्रकारान्तर से कहा गया है पांचवें वर्ग और छठे वर्ग के गुणनफल जितना है। इसे सरलता से इस प्रकार समझा जा सकता है--एक का वर्ग एक ही आता है। उसके कितने ही वर्ग करो एक ही आयेगा। इसलिए वर्गफल के लिए २ की संख्या को ग्रहण किया जाता है। २४२-४ पहला वर्गफल । ४४४=१६ दूसरा वर्गफल । १६४१६=२५६ तीसरा वर्गफल ।२५६४२५६ =६५५३६ चौथा वर्गफल। ६५५३६४६५५३६-४२९४९६७२९६ पांचवां वर्गफल । ४२९४९६७२९६४४२९४९६७२९६ =१८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ छट्ठा वर्गफल । अब पांचवें और छठे वर्गफल को गुणा किया ४२९४९६७२९६४ १८४४६७४४०७३७०९५५१६१६=७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ । इस राशि में २९ अंक हैं।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org