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________________ २८४ अणुओगदाराई भाग जितने हैं उनके तेजस शरीर नहीं होता इसलिए बद्ध तेजस शरीर सब जीवों से अनन्त भाग न्यून बतलाये गये हैं।' तैजस शरीर द्रव्य से सर्व जीवों से अनन्तगुणा अथवा सर्व जीववर्ग के अनन्तवें भाग जितने होते हैं। किसी एक राशि को उस राशि से गुणित करने को वर्ग कहते हैं। जीव राशि को जीव राशि से गुणित करने पर जो राशि प्राप्त होती है उसे जीव वर्ग राशि कहते हैं । सर्वजीव राशि अनन्त है। सरलता से समझने के लिए हम जीवराशि को कल्पना से दस हजार मान कर चलते हैं और अनन्त को १०० मान लेते हैं १००००४१००=१०००००० (दस लाख) यह सर्व जीवों के अनन्त गुण की राशि हुई। ऊपर सर्व जीव राशि को १०००० (दस हजार) माना था। उसका वर्ग किया १००००x१००००=१०००००००० (दस करोड़) यह जीव वर्ग का प्रमाण है। अनन्त को १०० माना था इसलिए अनन्तवें भाग के लिए उक्त राशि में १०० का भाग दिया। १००००००००-१००-१०००००० दस लाख । ऊपर कथित दोनों प्रक्रियाओं से दोनों का फलित एक समान है। सूत्र ४६३ ८. (सूत्र ४६३) नरयिकों के वैक्रिय शरीरों का प्रमाण क्षेत्र से प्रतर के असंख्यातवें भाग में रहने वाली असंख्यात श्रेणियां हैं। उन श्रेणियों की विष्कंभसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल को द्वितीय वर्गमूल से गुणित करने वाली राशि जितनी हैं अथवा अंगुल के द्वितीय वर्गमूल के धन के प्रमाण जितनी हैं। श्रेणी को श्रेणी से गुणित करने से प्रतर की राशि आती है। श्रेणियां असंख्यात हैं। असंख्यात असंख्यात प्रतरराशि। प्रतर का असंख्यातवां भाग=असंख्यात असंख्यात-असंख्यात श्रेणियां । असंख्यात किसी राशि को उसी राशि से गुणा करने पर वर्ग (वर्गफल) आता है। जिस राशि से गुणा किया था वह उस वर्गफल का वर्गमूल होता है। श्रेणियां असंख्यात हैं । कल्पना से मान लें वे २५६ हैं। २५६ का प्रथम वर्गमूल १६ द्वितीय वर्गमूल ४ और तृतीय वर्गमूल २ होता है। देखें यंत्र-- |१|२| ३ ४/+क्रम २|४|१६ | २५६ | स्वर्गमूल | ऊपर लिखित प्रथम वर्गमूल १६ को द्वितीय वर्गमूल ४ से गुणा किया। १६४४=६४ श्रेणियां । प्रकारान्तर से कथित द्वितीय वर्गमूल ४ का घन किया ४४४४४= ६४ श्रेणियां । दोनों प्रक्रियाओं का फलित एक समान है केवल कथन की भिन्नता है। असंख्यात के स्थान पर कल्पित २५६ श्रेणियों की विष्कंभसूची ६४ होती है। सूत्र ४६७ ९. (सूत्र ४६७) असुरकुमारों के वैक्रिय शरीर क्षेत्र की अपेक्षा से प्रतर के असंख्यातवें भाग रूप असंख्यात श्रेणियों जितने हैं। उन श्रेणियों की विष्कंभसूची अंगुल के प्रथमवर्गमूल के असंख्यातवें भाग जितनी है। कल्पना से मान लें वे असंख्यात श्रेणियां १६ हैं। उनका प्रथम वर्गमूल ४ होता है । देखें यंत्र |१|२ ३|+-क्रम २|४|१६|-वर्ग मूल | असंख्यात के स्थान पर मानी गई १६ श्रेणियों का वर्गमूल ४ है। विष्कंभसूची इस ४ का असंख्यातवां भाग जितनी होगी। १. (क) अचू. पृ. ६३। (ख) अहाव. पृ. ९०। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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