________________
प्र० १०, सू० ४५७-४६०, टि०५-७
२८३
जीव की अवगाहना असंख्यप्रदेशात्मक आकाश में होती है उससे अल्प प्रदेशों में उसकी अवगाहना नहीं होती। एक जीव को अपनी-अपनी अवगाहना के अनुसार आकाश प्रदेशों में स्थापित करने पर असंख्येय लोक भर जाते हैं।
___आकाश के एक एक प्रदेश पर एक-एक जीव को स्थापित करने पर भी असंख्येय लोक भर जाते हैं किन्तु यह सिद्धान्त सम्मत नहीं है। जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है कि जीव की अवगाहना आकाश के एक दो प्रदेशों में नहीं होती। उसकी अवगाहना के लिए कम से कम आकाश के असंख्येय प्रदेश आवश्यक है । यह कथन संख्या को उदाहरण से समझाने के लिए है।
मुक्त औदारिक शरीर अनन्त हैं । बद्ध औदारिक शरीर असंख्येय हैं, इस अवस्था में मुक्त औदारिक शरीर अनन्त कैसे हो सकते हैं ? बद्ध शरीर का सम्बन्ध वर्तमान से है, मुक्त शरीर का संबंध दीर्घकालीन अतीत से है। एक जीव ने औदारिक वर्गणा के जिन पुद्गलों को औदारिक शरीर काय प्रयोग के रूप में परिणत किया और वे एक अवधि के पश्चात् मुक्त हो गये वे मुक्त पुद्गल
औदारिक शरीर काय प्रयोग अवस्था को छोड़कर अन्य रूप में परिणत नहीं होते हैं तब तक उनकी संज्ञा मुक्त औदारिक शरीर रहती है इस प्रकार प्रत्येक औदारिक शरीर अनन्त भेद वाला हो जाता है।
बद्ध औदारिक शरीर पर काल और क्षेत्र दो दृष्टियों से विचार किया गया है और मुक्त औदारिक शरीर पर काल, क्षेत्र और द्रव्य इन तीन दृष्टियों से विचार किया गया है। अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के जितने समय होते हैं, काल की दृष्टि से मुक्त औदारिक शरीर उतने ही हैं। क्षेत्र की दृष्टि से मुक्त औदारिक शरीर अनन्त लोक प्रमाण हैं। प्रज्ञापना में प्रतिपाति सम्यम् दृष्टि जीवों को अभव्य जीवों से अनन्त गुण अधिक और सिद्धों से अनन्त भागहीन बतलाया गया है। क्या मुक्त औदारिक शरीर की तुलना उनसे की जा सकती है ? इस विषय में चूर्णिकार का मत यह है-मुक्त औदारिक शरीरों की संख्या अनियत है । कभी वे प्रतिपाति सम्यग् दृष्टि जीवों से अधिक हो जाते हैं, कभी कम, कभी समान । इसलिए प्रतिपाति सम्यग्दृष्टि जीवों से उनकी तुलना नहीं होती।
मुक्त औदारिक शरीर क्षेत्र की दृष्टि से अनन्त लोक प्रमाण बतलाए गये हैं फिर उनका समावेश एक लोक में कैसे हो सकता है ? यह जिज्ञासा स्वाभाविक है। इसका समाधान परिणति-वैचित्य के सिद्धान्त से किया जा सकता है। एक आकाश प्रदेश में एक परमाणु भी रहता है और उसी आकाश प्रदेश में अनन्त प्रदेशी स्कन्ध भी रह सकता है। यदि पुद्गल द्रव्य में सूक्ष्म परिणति की क्षमता नहीं होती तो अनन्त परमाणुओं और अनन्त स्कन्धों के लिए अनन्त लोक अपेक्षित होते, किन्तु सूक्ष्म परिणति की क्षमता के कारण वे एक लोक में समाए हुए हैं । चूणि कार और वृत्तिकार ने उक्त समस्या का समाधान प्रदीप के प्रकाश के दृष्टान्त से किया है जैसे एक प्रदीप के प्रकाश में अनेक प्रदीपों के प्रकाश समाविष्ट हो जाते हैं इसी प्रकार एक औदारिक शरीर के अवगाहन क्षेत्र में अनेक औदारिक शरीरों का अवगाहन हो जाता है।
प्रस्तुत सूत्र में प्रतिपादन का व्युत्क्रम किया गया है। प्रतिपादन की सामान्य शैली द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इस क्रम पर आधारित है । प्रस्तुत सूत्र में काल, क्षेत्र और द्रव्य इस क्रम का अनुसरण किया गया है । प्रकृत विषय काल है इसलिए काल का प्रथम निरूपण स्वाभाविक है। चूणि और वृत्ति के अनुसार शरीर के पुद्गलों का कालान्तरावस्थायित्व बतलाया गया है इसलिए काल को प्रधान माना गया है।
सूत्र ४५९ ६. (सूत्र ४५९)
बद्ध आहारक शरीर के विषय में दो विशेष उल्लेख ज्ञातव्य हैं१. आहारक शरीर का अन्तर काल जघन्य एक समय उत्कृष्टत: छह महीने बतलाया गया है इसलिए वह निरन्तर नहीं
होता। २. बद्ध आहारक शरीर संख्या की दृष्टि से बहुत अल्प होते हैं। जघन्यतः एक दो तीन और उत्कृष्टतः सहस्र पृथक्त्व (दो हजार से नौ हजार) होते हैं।
सूत्र ४६० ७. (सूत्र ४६०)
बद्ध तेजस शरीर सब जीवों से अनन्त भाग न्यून है। इस न्यूनता का कारण सिद्ध जीव बनते हैं। सिद्ध सब जीवों के अनन्त १. अचू. पृ. ६२, ६३ । २.(क) अचू. पृ. ६३ ।
(ख) अहावृ. पृ. ८९।
Jain Education Intemational
For Private & Personal use only
www.jainelibrary.org