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अणुओगदाराई स्वाभाविक होता है। मनुष्य और तिर्यञ्चों के यह लब्धिजन्य होता है । वायुकाय के भी वैक्रिय शरीर होता है। आहारक शरीर
___ आहारक लब्धि के द्वारा निर्मित शरीर आहारक शरीर कहलाता है। श्रुतकेवली विशिष्ट प्रयोजन उत्पन्न होने पर इसका निर्माण करते हैं। तेजस शरीर
यह ऊष्मामय शरीर है। इसका कार्य है पाचन और दीपन । यह शरीर तेजोलब्धि का भी हेतु बनता है। कार्मण शरीर
कर्म का विकार कार्मण शरीर है। इसका निर्माण अष्टविध कर्म पुद्गलों से होता है। यह शेष सब शरीरों का मूल कारण है।
सिद्धसेन गणी ने कार्मण शरीर के विषय में मतान्तर का उल्लेख किया है। उनके अनुसार कार्मण शरीर समस्त कर्म राशि का आधारभूत तथा नए कर्मों के प्रसव में समर्थ है। इसलिए कर्म ही कार्मण शरीर है, यह व्युत्पत्ति मात्र है। जैसे चक्षु आदि इन्द्रियां शरीर में होती हैं किंतु इन्द्रियां भिन्न हैं शरीर भिन्न है वैसे ही कर्म कार्मण शरीर में होते हैं पर कर्म भिन्न हैं कार्मण शरीर भिन्न है।
___कर्म की उत्पत्ति बन्धन नामकर्म और राग द्वेष के निमित्त से होती है। शरीर की उत्पत्ति शरीर नामकर्म के उदय से होती है। इसी तरह इनका विपाक भी भिन्न है। ज्ञानावरणादि कर्म का विपाक अज्ञान उत्पन्न करता है। कार्मण शरीर का विपाक कार्मण शरीर को ही परिपुष्ट करता है।
सिद्धसेन गणी ने कार्मण शरीर को कर्म से निष्पन्न तथा कर्म ही कार्मण शरीर है इन दोनों पक्षों को अनेकांत दृष्टि से संगत बतलाया है।
'तत्त्वार्थसूत्र' ६।१० की व्याख्या में सिद्धसेन गणी ने कार्मण शरीर को अपने योग्य द्रव्यों से निर्मित स्वसंस्थान वाला बतलाया है। इसका निष्कर्ष है कि कार्मण शरीर कर्माशय के रूप में उत्पन्न होता है और वह कर्म के लिए आधारभूत बनता है।'
चूर्णिकार ने इन पांच शरीरों की क्रम व्यवस्था पर विचार किया है। उनके अनुसार पांचों शरीर उत्तरोत्तर सूक्ष्म, अधिक प्रदेशवाले और अनेक प्रमाणों से गम्य हैं।'
सूत्र ४५७ ५. (सूत्र ४५७)
औदारिक शरीर दो प्रकार के होते हैं-बद्ध और मुक्त । बद्ध शरीर जीवयुक्त होता है और जीवरहित शरीर मुक्त कहलाता है । बद्ध शरीर असंख्येय होते हैं। काल की दृष्टि से उनका अनुमापन इस प्रकार है-एक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी का कालमान बीस कोड़ाकोड़ सागरोपम होता है। प्रतिसमय एक-एक शरीर का अवहार करते चलें तो असंख्येय उत्सपिणी और अवसपिणी में उनका अवहरण होगा । इसका फलितार्थ यह है कि असंख्येय उत्सपिणी और अवसर्पिणी के जितने समय होते हैं, उतने ही बद्ध औदारिक शरीर होते हैं।
क्षेत्र की दृष्टि से बद्ध औदारिक शरीर असंख्येय लोक जितने हैं । औदारिक शरीर वाले जीव अनन्त हैं फिर भी उनके शरीर असंख्येय हैं । प्रत्येक शरीरी (एक शरीर में एक जीव) जीव असंख्येय हैं। उनके शरीर भी असंख्येय हैं । साधारण शरीरी (एक शरीर में अनन्त जीव) जीव एक शरीर में अनन्त होते हैं अतः उनके शरीर असंख्येय ही होते हैं । इस प्रकार बद्धशरीर असंख्येय हैं। १. अहाव. पृ. ८७ : वैक्रियं विविधा विशिष्टा वा क्रिया
४. वही, कर्मणो विकारः कार्मणं, अष्टविधकर्मनिष्पन्न सकलविक्रिया, विक्रियायां भवं वैक्रियं, विविधं विशिष्टं वा
शरीरनिबंधनं च। कुर्वति तदिति वैकुविकं ।
५. तभा. पृ. १९५, १९६ । २. वही, आयत इत्याहारकं, गृह्यते इत्यर्थः, कार्यपरिसमा- ६. तमा. पृ. २१ । प्तेश्च पुनर्मुच्यते याचितोपकरणवत् ।
७. अचू. पृ. ६१: परं परं प्रदेशसूक्ष्मत्वात परं परं प्रदेश३. वही, तेजोभावस्तैजसं, रसाद्याहारपाकजननं लब्धिनिबंधनं
बाहुल्यात परं परं प्रमाणोपलब्धित्वात प्रथित एवौदारिकादिक्रमः।
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