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प्र० १० सू० ४१६-४४६, टि० ३,४
सूत्र ४२२
पल्य- कोठा, कोष्ठागार, लाटदेश में धान्य का पात्र । क्षीण कुछ बालाग्रों के शेष रहने की अवस्था । नीरजस् - बालानों के शेष (समाप्त) होने की अवस्था । निर्लेप बालाग्र के सूक्ष्म अवयव के भी न रहने की अवस्था । निष्ठित निर्लेप होने के पश्चात् उसे निष्ठित कहा जा सकता है ।
सूत्र ४२४
बालाग्र - ( वालग्गे) सूत्रकार ने बालाग्र के परिमाण का प्रतिपादन विषयवस्तु व क्षेत्र इन दो दृष्टिकोणों से किया है। १. एक मनुष्य अपनी आंखों से किसी पौद्गलिक वस्तु को देखता है उसके असंख्येय भाग जितना बालाग्र होता है। बालाग्र का यह प्रमाण विषयवस्तु अथवा ज्ञेय की संरचना की अपेक्षा से है ।
२. बाला सूक्ष्म पनक के जीवों की शरीरावगाहना के असंख्येय गुण क्षेत्र जितनी अवगाहना वाला होता है। बालाग्र का यह प्रमाण क्षेत्र की अपेक्षा से निर्दिष्ट है । इसका तात्पर्य हैं कि सूक्ष्मपनक जीव की शरीरावगाहना का जो क्षेत्र है, बालाग्र का परिमाण उससे असंख्येयगुण होता है ।
चूर्णिकार ने बालाग्र को पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक जीव के शरीर जितने परिमाण वाला बताया है ।"
सूत्र ४४६
४. ( सूत्र ४४६ )
हरिभद्रसूरि ने ओरालिय शरीर के चार मूल बतलाए हैं उदार, उराल, उरल और ओरालिय । इसका आधार सूत्र
चूर्णि है । *
उदार का अर्थ है प्रधान । तीर्थंकर और गणधर का शरीर ओरालिय शरीर होता है । इस अपेक्षा से यह उदार अथवा प्रधान शरीर है। इस प्रधानता के आधार पर ओरालिय का संस्कृत रूप बनता है औदारिक । "
उराल का अर्थ है विशाल । ओरालिय शरीर की ऊंचाई एक हजार योजन से अधिक होती है। यद्यपि वैक्रिय शरीर की ऊंचाई कुछ अधिक एक लाख योजन प्रमाण होती है किंतु वह अवस्थित नहीं है; वह उत्तरवेक्रिय काल में होती है। वैक्रिय शरीर की स्वाभाविक ऊंचाई ५०० धनुष्य प्रमाण होती है ।"
उरल - भिण्डी की तरह जिसका आकार बड़ा और प्रदेश का उपचय अल्प होता है उसकी संज्ञा है उरल । ओरालिय शरीर आकार में बृहत् और प्रदेशोपचय की दृष्टि से स्वल्प होता है।
उराल - जो ओरालिय शरीर मांस, अस्थि, स्नायु आदि अवयवों से बद्ध होता है । " सिद्धसेन गणी ने औदारिक शरीर के दो अर्थ बतलाएं हैं, १. बृहत् और २ असार ।
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वैक्रिय शरीर
जो शरीर नाना रूपों का निर्माण करने में सक्षम होता है उसकी संज्ञा है वैक्रिय शरीर ! नारक और देव के वह
१.
पृ. १५९ ।
1:
२. अचू. पृ. ५८ ते बालग्गा असंखखंडीकता, किंपमाणा भवंति ? एरिसा ते बालग्गखंडा, पमाणेत्ति बायरविकाइपजससरोरप्रमाणा इत्यर्थः ।
:
३. अहावृ. पृ. ८७ शीर्यत इति शरीरं तत्थ ताव उदारं उरालं उरलं उरालियं वा उदारियं ।
४. अचू. पू. ६० ।
५. अहावृ. पृ. ८७ : तित्थगरगणधरसरोराई पडुच्च उदारं, उदारं नाम प्रधानं ।
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६. वही, उरालं नाम विस्तरालं, विशालंति वा जं भणितं होति कहे ? सातिरेगजोवण सहस्समवद्वियप्यमाणमोरालिय अणमेहमि गरिव वेउब्वियं होज्जा लक्खमहिय, अवट्टियं पंचधणसते, इमं पुण अवद्वितपमाणं अतिरेगजोयणसहस्सं वनस्पत्यादीनामिति ।
७. वही, उरलं नाम स्वल्पप्रदेशोपचितत्वात् बृहत्त्वाच्च भिण्डवत् ।
वही, उरालं नाम मांसास्थिनाय्वाद्यवयवबद्धत्वात् । ९. भा. पृ. १९५ ।
८.
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