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________________ १६० भीयं दुयमुप्पिच्छं, उत्तालं च कमसो मुणेयव्वं । काकस्सरमणुणासं, छद्दोसा होंति गीयस्स ॥५॥ भीतं द्रुतं उप्पिच्छ, उत्तालं च क्रमश: ज्ञातव्यम् । काकस्वरमनुनासं, षड्दोषाः भवन्ति गीतस्य ॥५॥ पुण्णं रत्तं च अलंकियं च वत्तं च तहेव मविघटळं। महुरं समं सुललियं, अट्ठ गुणा होंति गीयस्स ॥६॥ पूर्ण रक्तञ्च अलंकृतञ्च व्यक्तञ्च तथैव अविघुष्टम् । मधुरं सम सुललितं, अष्ट गुणाः भवन्ति गीतस्य ॥६॥ अणुओगदाराई ५. गीत के छह दोष होते हैं, इन्हें क्रमशः जानना चाहिएभीत-भयभीत होते हुए गाना । द्रुत-शीघ्रता से गाना। उप्पिच्छ – श्वास मुक्त गाना । उत्ताल-ताल से आगे बढ़कर या ताल के अनुसार न गाना। काक स्वर---कौए की भांति कर्ण कटु स्वर से गाना। अनुनास-नाक से गाना। ६. गीत के आठ गुण होते हैंपूर्ण-स्वर के आरोह, अवरोह आदि से परिपूर्ण होना। रक्त-गाए जाने वाले राग से परिष्कृत होना। अलंकृत-विभिन्न स्वरों से सुशोभित होना । व्यक्त-स्पष्ट स्वर वाला होना । अविघुष्ट-नियत या नियमित स्वर युक्त होना। मधुर--मधुर स्वर युक्त होना । सम-ताल, वीणा आदि का अनुगमन करना। सुललित-ललित, कोमल और लय युक्त होना। ७. गीत के ये आठ गुण और हैं--- उरो विशुद्ध-जो स्वर वक्ष में विशाल होता है। कण्ठ विशुद्ध-जो स्वर कण्ठ में नहीं फटता। शिरो विशुद्ध जो स्वर सिर से उत्पन्न होकर भी नासिका से मिश्रित नहीं होता। मृदु-जो राग कोमल स्वर से गाया जाता उर-कंठ-सिर-विसुद्ध, च गिज्जते मउय-रिभिय-पदबद्ध। समतालपदुक्खेवं, सत्तस्सरसीभरं गीयं ॥७॥ उरः कण्ठ-शिरो-विशुद्धं, च गीयते मृदुक-रिभित-पदबद्धम् । समतालपदोत्क्षेपं, सप्तस्वरसीभरं गीतम् ॥७॥ रिभित-घोलना-बहुल आलाप के कारण खेल सा करते हुए स्वर । पदबद्ध-गेय पदों से निबद्ध रचना । समताल पदोत्क्षेप-जिसमें ताल, झांझ आदि का शब्द और वर्तक का पाद-निक्षेप -ये सब सम हों- एक दूसरे से मिलते Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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