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________________ दसवां प्रकरण : सूत्र ४५६-४६५ तं जहा- बद्धे दुविहा पण्णत्ता, याय मुक्केलाय तत्थ णं जेते बल्लया से णं नरिथ णं जेते मुक्केलया ते जहा जहिया ओरालि यसरीरा तहा भाणि तस्थ यव्वा || ४६३. नेरयाणं भंते! केवडया वेउयसरी पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा बड़े ल्लया य मुक्केल्लया य । तत्थ णं जेते बद्वेल्लया ते गं असंखेज्जा, असंज्जाह उस्सप्पिणी ओसप्पि हि अवहीरंति कालओ, खेत्तओ असंखेज्जाओ सेडीओ पयरस्स असंखेज्जइभागो । तासि णं सेढीणं विश्वंभसूई अंगुलपदमवग्गमूलं बिइयग्गमूल पडुपणं अहव णं अंगुल बिइयवग्गमूलघणपमाणमेत्ताओ सेढीओ । तत्थ णं जेते मुक्केल्लया ते णं जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भाणि यव्वा || ४६४. नेरइयाणं भंते! केवड्या आहारगसरीरा पण्णत्ता ? गोवमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- बद्धे ल्लया व मुक्केल्लया व तस्य णं जेते बल्लया से णं नत्थि । तत्थ णं जेते मुक्केल्लया ते जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भाणियव्वा ॥ ४६५. तेयग- कम्मगसरीरा जहा एएसि चैव वेव्वियसरीरा तहा भाणियव्वा || Jain Education International गौतम ! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र यानि एतानि बद्धानि तानि नास्ति । तत्र यानि एतानि मुक्तानि तानि यथा औधिकानि औदारिकशरीराणि तथा भणितव्यानि । नैरयिकाणां भदन्त ! कियन्ति वैक्रियशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र पानि एतानि बद्धानि तानि असंख्ये बानि, असंख्येयाभिः उत्सवियवसणीभिः अपह्रियन्ते कालतः, क्षेत्रतः असंख्येयाः श्रेण्यः प्रतरस्य असंख्येयतमभागः । तासां श्रेणीनां विष्कम्भसूचि: प्रथमवर्गमूल द्वितीयवर्गमूलप्रत्युत्पन्नम् अथवा अंगुल द्वितीयवर्गमूलधनप्रमाणमात्रा घेण्यः तत्र यानि एतानि मुक्तानि तानि यथा औधिकानि औदारिकशरीराणि तथा भणितव्यानि । नैरयिकाणां भदन्त ! कियन्ति आहारकशरीराणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! द्विविधानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - बद्धानि च मुक्तानि च । तत्र यानि एतानि बद्धानि तानि नास्ति । यानि एतानि मुखानि तानि यथा औधिकानि औदारिकशरीराणि तथा भणितव्यानि । जस-कर्मकशरीराणि तेषां चैव वैक्रियशरीराणि तथा भणितव्यानि । For Private & Personal Use Only २६६ गौतम ! औदारिक शरीर के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे—बद्ध और मुक्त । नैरयिक जीवों के बद्ध औदारिक शरीर नहीं होते। जो मुक्त हैं वे औधिक औदारिक शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं [देखें सू ४५७] ४६३. भन्ते ! नैरयिक जीवों के वैक्रिय शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! वैक्रिय शरीर के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे—बद्ध और मुक्त। उनमें जो बद्ध हैं वे असंख्येय हैं काल की दृष्टि से असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उनका अपहार होता है । क्षेत्र की दृष्टि से वे प्रतर के असंख्येय भाग में होने वाली असंख्येय श्रेणियों के आकाश प्रदेश जितने होते हैं। उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची अंगुल प्रमाण प्रतर क्षेत्र में होने वाली श्रेणी के असंख्येय वर्गमूल होते हैं । इसलिए प्रथम वर्गमूल को द्वितीय वर्गमूल से गुणित करने पर जितनी श्रेणियां प्राप्त होती हैं उतने प्रमाण वाली श्रेणियों की विष्कम्भसूची होती है। प्रकारान्तर से अंगुल प्रमाण प्रतर क्षेत्र में होने वाली श्रेणी के द्वितीय वर्गमूल का पन करने पर जो श्रेणियां प्राप्त होती हैं उतने प्रमाग वाली श्रेणियों की विष्कम्भसूची होती है । इनमें जो मुक्त हैं वे औधिक औदारिक शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं ।" [ देखें सू. ४५७ ] । ४६४ भन्ते ! नैरयिक जीवों के आहारक शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! आहारक शरीर के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-बद्ध और मुक्त। नैरयिक जीवों के बद्ध आहारक शरीर नहीं होते, उनके जो मुक्त शरीर हैं वे औधिक औदारिक शरीर की भांति ही प्रतिपादनीय हैं । [ देखें सू ४५७ ] । ४९४. तेजस और कार्मण शरीर इन्हीं के ि शरीर की भांति प्रतिपादनीय हैं। [देखें सू. ४६३] । www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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