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४४. यावत्कथिक शाश्वती प्रतिमा, अर्हतादिक रूपे करी।
सहु काल तिष्ठ ते भणी, इम स्थापना तसुं उच्चरी ।।
वा० ...ठा गतिनिवृत्ती इण धातु नी व्युत्पत्ति हुती जे शाश्वती प्रतिमा । अर्हतादिक रूपे सदाकाल तिष्ठ ते भणी तेह नी स्थापना कहीइं। परं स्थापीये ते स्थापना ए अर्थ इहां न संभवै ते जे भणी तेहनां शाश्वतपणां माटै मनुष्य लोक नै विषे अशाश्वतोपण करी किण ही पिण स्थापी प्रतिष्ठी नथी। ते भणी काल की अपेक्षाय ईत्वर अनैं यावत्कथिक एबे भेद हुई।
अणुओगदाराई ४४. शाश्वतप्रतिमादिरूपा तु यावत्कथिका वर्तते ।
(वृ. प. १२) वा० तस्याश्चाहदादिरूपेण सर्वदा तिष्ठतीति स्थापनेति व्युत्पत्ते, स्थापनात्वमवसेयं, न तु स्थाप्यत इति स्थापना, शाश्वतत्वेन केनापि स्थाप्यमानत्वाभावादिति, तस्माद्भावशून्यद्रव्याधारसाम्येऽप्यस्स्यनयो: कालकृतो विशेषः । (वृ. प. १२)
गीतक छंद ४५. अथ शिष्य पूछ स्थापना जिम, अल्प काल तणी कही।
तिम नाम पिण को एक थोड़ा, काल नूंज हवै सही ।। ४६. गोपाल दारक आदि जेह, छते कदाचित जाणियै ।
बहु नाम फिरता देखवा थी, काल इत्वर आणिय ।। ४७. गुरु कहै ए सत्य किंतु, प्राये नाम यावत्कथिक ही।
जो कदाचित अन्यथा ते, अल्पता माटै वही ।। ४८. वंछय नहीं छै इहां, तिण कारण थकी दोषण नहीं ।
ए काल भेदे उभय भेदज, ते उपलक्षण मात्र ही ॥ ४९. फुन अन्य पिण बहु विधितणां जे, भेद नां संभव थकी।
जे नाम नै स्थापना मांहे, भेद कहियै छै नकी ।। ५०. जिम इंद्र आदिक तणी प्रतिमा, स्थापना में देखियै ।।
कुंडल अने अंगद प्रमुख करि, विभूषित सुविशेखियै ।। ५१. फुन सची वज्रादिकतणां, आकार तास समीप ही।
तिम नाम इंद्रादिक विषे नहि, भेद एह प्रत्यक्ष ही' ।।
४५. अत्राह-ननु यथा स्थापना काचिदल्पकालीना तथा
नामापि किञ्चिदल्पकालीनमेव। (व.प. १२) ४६. गोपालदारकादौ विद्यमानेऽपि कदाचिदनेकनामपरावृत्तिदर्शनाद् ।
(वृ. प. १२) ४७,४८. सत्यं, किन्तु प्रायो नाम यावत्कथितमेव, यस्तु
क्वचिदन्यथोपलम्भः सोऽल्पत्वात् नेह विवक्षित इत्यदोषः । उपलक्षणमात्रं चेदं कालभेदेनैतयोर्भेदकथनम् ।
(वृ. प. १२) ४९. अपरस्यापि बहुप्रकारभेदस्य सम्भवात् ।
(वृ. प. १२) ५०. तथाहि --यथेन्द्रादिप्रतिमास्थापनायां कुण्डलाङ्गदादिभूषितः।
(वृ. प. १२) ५१. सन्निहितशचीवज़ादिराकार उपलभ्यते न तथा नामेन्द्रादी।
(वृ. प. १२)
१. श्रीमज्जयाचार्य ने अनुयोगद्वार की जोड़ को प्रारम्भ किया। प्रारंभ को देखते हुए लगता है वे इसे बहुत विस्तार से करना चाहते थे। पूरी जोड़ बन पाती तो बहुत उपयोगी होती, पर किसी कारणवश जयाचार्य ने दो ढालें बनाकर ही इसे छोड़ दिया। दूसरी ढाल भी पूरी नहीं है। इनमें मात्र निक्षेप की प्रारम्भिक चर्चा हुई है। इसे सुरक्षित रखने की दृष्टि से हमने इसे सम्पादित कर अनुयोगद्वार के प्रकाशन के समय उसके परिशिष्ट में जोड़ दिया है।
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