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________________ प्र० १, सू० १५-२१, टि०१२ • च्यावित-शस्त्र आदि के प्रयोग से प्राणशक्ति से च्युत किया गया। • त्यक्तदेह-अनशन के द्वारा त्यागा हुआ शरीर अथवा अनशनजनित उपचय की हानि । धवला में त्रिविध अनशन के आधार पर त्यक्त शरीर के तीन भेद किए गए हैं:० प्रायोपगमन विधान से त्यक्त । • इंगिनी विधान से त्यक्त • भक्तप्रत्याख्यान विधान से त्यक्त । चूर्णिकार ने 'चत्तं जीवेण देह' 'चनो देहेण वा जीवो' इस व्याख्या के द्वारा चत्तदेहं का अर्थ जीवमुक्तदेह किया है।' आचार्य हरिभद्र ने भी चत्तदेहं की यही व्याख्या की है। उन्होंने चत्तदेहं और देहोवरयं को एकार्थक माना है।' वृत्तिकार हेमचन्द्र ने चत्तदेहं का अर्थ उपचयरहित किया है। शरीर का उपचय आहार आदि के द्वारा होता है । जीवमुक्त शरीर के आहार का ग्रहण नहीं होता, तब उसकी परिणति कहां से होगी? शय्यागत देहप्रमाण बिछौने को शय्या कहा गया है और ढाई हाथ प्रमाण बिछौने को संस्तारक कहा गया है। निषिधिकागत चूर्णिकार और हरिभद्र के सामने यह पाठ नहीं रहा होगा, इसलिए उन्होंने इसकी व्याख्या नहीं की। वृत्तिकार हेमचन्द्र ने वाचनान्तर मानकर इसकी व्याख्या की है । उनके अनुसार इसका अर्थ है-शवपरिष्ठापनभूमि । स्थानांग सूत्र में व्यापारान्तर के निषेध रूप समाचारी-आचार, वसुदेवहिडि में मुक्ति--मोक्ष, श्मशानभूमि, तीर्थकर या सामान्यकेवली का निर्वाण स्थान, स्तूप और समाधि अर्थ किया गया है। आवश्यक चूणि में इसका अर्थ वसति-साधुओं के रहने का स्थान और स्थण्डिलभूमि-निर्जीवभूमि किया गया है । सिद्धशिलातलगत सिद्धशिला शब्द का प्रयोग दो अर्थों में होता है। ईषत् प्राग्भारा नामक आठवीं पृथ्वी सिद्धशिला कहलाती है पर यहां वह विवक्षित नहीं । प्रस्तुत सन्दर्भ में इसका अर्थ है-जिस शिलातल पर तपस्वी साधु स्वयं जाकर भक्तपरिज्ञा, इंगिनी या प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर चुके हैं, कर रहे हैं अथवा करेंगे वह क्षेत्र । उस क्षेत्र के प्रकम्पन ऐसे हैं कि वहां बैठकर साधना करने से शीघ्र सफलता मिल जाती है । चूणिकार ने इसका दूसरा कारण यथाभद्रक देवों के द्वारा दिए गए सहयोग को माना है। यथाभद्रक देव वे होते हैं जो प्रकृति से भद्र व साधना में सहयोग करने वाले होते हैं । सूत्र १७ जोणिजम्मणनिक्खंते गर्भकाल का परिपाक होने के बाद निकलने वाला जीव। इस पद के द्वारा समय से पूर्व होने वाले जन्म का निषेध किया गया है। १.ध. १११,१,१।२५।६। २. अचू. पृ.९। ३. अहावृ. पृ. १४ : भण्णइ हु चत्तदेहं देहोवरओत्ति एगट्ठा। ४. अमवृ. प. १८ : त्यक्तो देहः---आहारपरिणतिजनित उपचयो येन तत् त्यक्तदेहं। ५. अमवृ. प. १८: शय्या -महती सर्वांगप्रमाणा तां गतं ___ शय्यागतं संस्तारो लघुको/तृतीयहस्तमानस्तं गतं ....... । ६. अमवृ.प. १८, १९ : नषेधिकी शवपरिस्थापनभूमिः । ७. (क) अचू. पृ. ९ : सिद्धसिल त्ति जत्थ सिलातले साहवो तवकम्मिया सयमेव गंतुं भत्तपरिणिगिणि पाववगमणं वा बहवे पवण्णपुव्वा पडिवज्जति य तत्थ यं खेत्तगुणतो अहाद्दियदेवता गुणेण वा आराहणा सिद्धी य जत्थावस्सं भवति सा सिद्धसिला। (ख) अहावृ.पृ. १४,१५ । (ग) अमवृ. प. १८। ८. (क) अचू. पृ. १०.११: जोणी गम्भाधारस्थानं ततो सब्वहा पज्जत्तो जन्मत्वेन निष्क्रान्तः आमगन्मनिक्कमणप्रति षेधार्थमेवमुक्तम् । (ख) अहाव.पृ.१५। (ग) अमवृ. प. १९,२० । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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