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पहला प्रकरण : सूत्र १४-१६ निसीहियागयं वा सिद्धसिलातलगयं सिद्धशिलातलगतं वा दृष्ट्वा कोऽपि श्मशान-भूमि या सिद्ध-शिलातल पर देखकर वा पासित्ताणं कोई वएज्जा- वदेत् --अहो ! अनेन शरीर- कोई कहे-आश्चर्य है इस पौद्गलिक शरीर अहो णं इमेणं सरीरसमुस्सएणं समुच्छयेण जिनदिष्टेन भावेन ने जिन द्वारा उपदिष्ट भाव के अनुसार जिणदिट्टेणं भावेणं आवस्सए ति आवश्यकम् इति पदं आख्यातं आवश्यक इस पद का आख्यान, प्रज्ञापन, पयं आधवियं पण्णवियं परूवियं प्रज्ञापितं प्ररूपितं दर्शितं निशितम् प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया दंसियं निदंसियं उवदंसियं। जहा उपदशितम्। यथा कः दृष्टान्तः ? है। जैसे -कोई दृष्टान्त है ? [आचार्य ने को दिळंतो? अयं महुकुभे आसी, अयं मधुकुम्भः आसीत्, अयं घृत- कहा- इसका दृष्टान्त यह है] यह मधु-घट अयं घयकुंभे आसो । से तं जाणग- कुम्भः आसीत् । तदेतत् ज्ञशरीर- था, वह घृत-घट था। वह ज्ञ-शरीर-द्रव्यसरीरदब्वावस्सयं ॥ द्रव्यावश्यकम् ।
आवश्यक है। १७. से कितं भविषसरीरदवावस्सयं? अथ कि तत् भव्यशरीर द्रव्या- १७. वह भव्य-शरीर-द्रव्य-आवश्यक क्या है ?
भवियसरीरदब्धावस्सयं-जे जीवे वश्यकम् ? भव्यशरीरद्रव्यावश्यक भव्य शरीर द्रव्य आवश्यक -गर्भ की पूर्णावधि जोणिजम्मणनिक्खंते इमेणं चेव यः जीवः योनिजन्मनिष्क्रान्तः अनेन से निकला हुआ जो जीव इस प्राप्त पौदगलिक आदत्तएणं सरीरसमुस्सएणं जिण- चैव आदत्तकेन शरीरसमुच्छयेण शरीर से "आवश्यक' इस पद को जिन द्वारा दिठेणं भावेणं आवस्सए त्ति पयं जिनदिष्टेन भावेन आवश्यकम् इति उपदिष्ट भाव के अनुसार भविष्य में सीखेगा, सेयकाले सिक्खिस्सइ, न ताव पदम् एष्यत्काले शिक्षिष्यते, न तावत् वर्तमान में नहीं सीखता है, तब तक वह सिक्खइ। जहा को दिठंतो? शिक्षते । यथा कः दृष्टान्तः ? 'अयं भव्य-शरीर-द्रव्य-आवश्यक है। जैसे कोई अयं महुकुंभे भविस्सइ, अयं घय- मधुकुम्भः भविष्यति, अयं घृतकुंभः दृष्टान्त है? कुभे भविस्सइ ।से तं भवियसरीर- भविष्यति । तदेतत् भव्यशरीर- [आचार्य ने कहा-इसका दृष्टान्त यह है] यह दव्वावस्सयं ॥ द्रव्यावश्यकम् ।
मधु-घट होगा, यह घृत-घट होगा । वह भव्य शरीर-द्रव्य-आवश्यक है।
अथ कि तत् ज्ञ शरीर-भव्य- १८. वह ज्ञ-शरीर-भव्य-शरीर-व्यतिरिक्त-द्रव्यसरीर-वतिरित्तं दबास्सयं? शरीर-व्यतिरिक्तं द्रव्यावश्यकम् ? आवश्यक क्या है ? ज्ञ-शरीर-भव्य-शरीरजाणगसरीर-भवियसरीर-वतिरित्तं ज्ञशरीर-भव्यशरीर-व्यतिरिक्तं द्रव्या- व्यतिरिक्त-द्रव्य-आवश्यक के तीन प्रकार प्रज्ञप्त दवावस्सयं तिविहं पण्णत्तं, तं वश्यकं त्रिविधं प्रजप्तम् तद्यथा -- हैं, जैसे-लौकिक, कुप्रावनिक, लोकोत्तरिक । जहा-लोइयं कुप्पावयणियं लौकिकं कुप्रावचनिक लोकोत्तरिकम् । लोगुत्तरियं ॥
१६.से कि तं लोइयं दवावस्सयं? अथ कि तत लौकिकं
लोइयं दवावस्सयं जे इमे द्रव्यावश्यकम? लौकिक द्रव्याराईसर-तलवर-माइंबिय-कोडुबिय- वश्यकम् ये इमे राजेश्वर-तलवरइब्भ-सेटि-सेणावइ-सत्थवाहप्पभि- माडम्बिक-कौटुम्बिक- इभ्य - श्रेष्ठी - इओ कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए सेनापति-सार्थवाहप्रभृतयः कल्यं सुविमलाए फुल्लुप्पल-कमल-कोम- प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां सुविमलायां लुम्मिलियम्मि अहपंडुरे पभाए फुल्लोत्पल - कमल - कोमलोन्मीलिते रत्तासोगप्पगास - किसुय - सुयमुह- यथापाण्डुरे प्रभाते रक्तशोकप्रकाशगुंजद्धरागसरिसे कमलागर-नलि- किंशुक - शुकमुखगुजार्द्धरागसदृशे णिसंडबोहए उट्ठियम्मि सूरे कमलाकर-नलिनीषण्डबोधके उत्थिते सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा सूयें सहस्र रश्मौ दिनकरे तेजसा जलंते मुहधोयण-दंतपक्खालण- ज्वलति मुखधावने-दन्तप्रक्षालने-तलंतेल्ल-फणिह-सिद्धत्थय-हरियालिय- फणिह-सिद्धार्थक-हरितालिका- अद्दागअदाग-धव-पुष्क-मल्ल-गंध-तंबोल- धूप-पुष्प-माल्य-गन्ध - तम्बोल-वस्राणि
१९. वह लौकिक-द्रव्य-आवश्यक क्या है ? लौकिक
द्रव्य आवश्यक-उषा काल में पौ फटने पर और रात्रि के निर्मल होने पर, प्रफुल्लित उत्पल और अर्ध विकसित कोमल कमल वाले, पीत आभा वाले अरुणिम प्रभात में, लाल अशोक की दीप्ति, पलाश, तोते के मुख और गुजार्ध के समान रंग वाले, जलाशय गत नलिनी-वन के उद्बोधक, सहस्ररश्मि, दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर जो राजा, युवराज, तलवर (कोतवाल), मडम्बपति, कुटुम्बपति, इभ्य, सेठ, सेनापति, सार्थवाह आदि मुख धोते हैं, दांत पखालते हैं, तैल लगाते हैं, कंघी करते हैं, श्वेत सरसों और दूब सिर में डालते हैं, दर्पण देखते हैं,
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