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प्र०७, सू० २४६-२८७, टि०१-१५
१७७ को विस्थापित नहीं करता, किन्तु उन्हीं के साथ घुलमिल जाता है। इसी प्रकार किसी शब्द को हटाए बिना स्थान प्राप्त करना व्याकरण शास्त्र में आगम कहलाता है।
सूत्र २६७ ८. (सूत्र २६७)
___ व्याकरण के नियमानुसार पदान्त में स्थित एकार और ओकार के आगे अकार हो तो उसका लोप (अदर्शन) हो जाता है। प्रस्तुत सूत्र में निर्दिष्ट नाम इसी नियम के उदाहरण हैं ।
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६. (सूत्र २६८)
संस्कृत व्याकरण की तीसरी सन्धि के अन्तर्गत प्रकृतिभाव प्रकरण है । इस प्रकरण के नियमानुसार द्विवचनान्त ईकारान्त, ऊकारान्त और एकारान्त शब्दों में सन्धि का अवकाश होने पर भी सन्धि नहीं होती, वे अपनी प्रकृति में स्थित रहते हैं। यहां इस नियम के उदाहरण प्रस्तुत हैं ।
सूत्र २७० १०. नामिक (नामिक)
नाम से होने वाला शब्द नामिक होता है। नाम की परिभाषा वैयाकरणों के अनुसार यह है-“अर्थवदऽधातुविभक्ति वाक्यं नाम" धातु, विभक्ति और वाक्य को छोड़कर कोई भी अर्थवान शब्द नाम कहलाता है। अश्व आदि नाम नामिक कहलाते हैं। ११. नेपातिक (नेपातिक)
अमुक-अमुक अर्थों को व्यक्त करने के लिए निश्चित किए गए वे पद, जो सब लिंगों और विभक्तियों में समान होते हैं, निपात कहलाते हैं, जैसे -च, वा, हआदि । १२. आख्यातिक (आख्यातिक)
आख्यात नाम है-धातु का। धातु के आगे प्रत्यय लगाकर जो धातु रूप निष्पन्न किया गया है वह आख्यातिक कहलाता है। वाक्या-रचना में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है । इसके अभाव में वाक्य अधूरा रहता है। १३. औपसगिक (औपसगिक)
निपातसंज्ञक शब्दों के अन्तर्गत आए हुए कुछ शब्द क्रिया के योग में उपसर्ग संज्ञा प्राप्त कर लेते हैं उनसे बने नाम औपसर्गिक कहलाते हैं। १४. मिश्र (मिश्र) उपसर्ग, धातु, प्रत्यय आदि के योग से जो शब्द रूप बनते हैं वे मिश्र कहलाते हैं।
सूत्र २७१-२८७ १५. (सूत्र २७१-२८७)
भाव का शाब्दिक अर्थ है होना। इसका पारिभाषिक अर्थ है-मोह के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम से होने वाला जीव का स्पन्दन । इसलिए भाव को जीव का स्वरूप कहा गया है। किसी एक पर्याय के आधार पर हम जीव के स्वरूप को नहीं जान सकते, उसके विभिन्न पर्याय ही उसके अस्तित्व को प्रकट करते हैं।
भाव के छः प्रकार हैं-१. औदयिक २. औपशमिक ३. क्षायिक ४. क्षायोपशमिक ५. पारिणामिक ६. सान्निपातिक । उमास्वाति के वर्गीकरण में सान्निपातिक भाव का उल्लेख नहीं है। उन्होंने भाव को जीव का स्वतत्त्व या स्वरूप बतलाया है।'
जीव का अस्तित्व निरुपाधिक है । उसके उपाधि कर्म के उदय अथवा विलय से होती है, जैसे-ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से जीव अज्ञानी कहलाता है, उसके क्षयोपशम से जीव मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी कहलाता है। औदयिक भाव से मनुष्य का बाहरी व्यक्तित्व निर्मित होता है। क्षायोपशमिक भाव से उसके आन्तरिक व्यक्तित्व का निर्माण होता है। व्यक्तित्व की सर्वाङ्गीण व्याख्या के लिए भावों का अध्ययन बहुत महत्त्वपूर्ण है। १. तसू. २।१।
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